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कहलाता है यह सिद्धान्त सर्वाधिक वैज्ञानिक और तर्क संगत है उनमें से पहला मत है 'अन्यत्रान्यधर्माध्यासः अर्थात् एक में दूसरे के धर्म के आरोप को अध्यास कहते हैं। शंकराचार्य द्वारा उद्धृत दूसरा भ्रम सिद्धान्त इस प्रकार है"यत्र यदध्यासस्तद्विवेकाग्रहनिबन्धनो भ्रम" अर्थात् जिसमें अध्यास है उसके भेद को न ग्रहण करना भ्रम है। यह मत सांख्य और मीमांसकों के अख्यातिवाद का सूचक है।
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तीसरा मत है-"यत्र यदध्यासः तस्यैव विपरीतधर्मत्वकल्पनामाचक्षते अर्थात् जिसमें जिसका अध्यास है उसमें विरुद्ध धर्मत्व की कल्पना को अध्यास कहते हैं। यह मत माध्यमिकों का हो सकता है, जिसे
कहते हैं।
असत् ख्यातिवाद
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इन सभी पक्षों पर विचार करने पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारतीय दर्शन में ख्यातिवाद का तुलनात्मक अध्यययन के अनुसार अद्वैत - वेदान्त द्वारा प्रतिपादित अनिर्वचनीय ख्यातिवाद, जो भ्रम की समस्या की व्याख्या एक सीमा तक सफलतापूर्वक करता है, निश्चय ही अन्य सिद्धान्तों की तुलना में उपयुक्त सिद्धान्त हो सकता है। यद्यपि दर्शन में कोई भी सिद्धान्त पूर्णतः निर्दोष नहीं माना जाता है, फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से किसी एक सिद्धान्त को अन्य सिद्धान्त से अधिक तर्कसंगत कह सकते हैं। इस दृष्टि से आदिशंकराचार्य का मत सर्वोत्कृष्ट है। संभवतः इसी लिए इन्हें ग्रीक दार्शनिक प्लेटो की तरह पूर्ण दार्शनिक बतलाया गया है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी इन्हें कम्पलिट फिलॉसफर माना है। शंकर की दृष्टि में सम्पूर्ण संसार परिवर्तनशील है। इसलिये भ्रम ही है । मात्र ब्रह्म ही सत्य है क्योंकि उनका ज्ञान बाधित नहीं होता है । नित्य में अनित्य का अनुभव करना ही भ्रम है। ब्रह्म अनेक हो नहीं जाता बल्कि प्रतीत होता है इसलिये भ्रम कहा जाता है। ज्ञानी को भ्रम नहीं होता बल्कि अज्ञानी ही भ्रम का शिकार होता है सांसारिक मानवों के लिए रामानुज का सत्ख्याति का सिद्धान्त ही युक्तिसंगत एवं वैज्ञानिक मत के समतुल्य है। रामानुज की दृष्टि में शंकर का दर्शन "Finished example of learned error” है। Dark with the excess of light भी कहा जाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी इस बात की सम्पुष्टि की है। यद्यपि इन्होंने समानुज से भी पूर्णतः सहमत नहीं हैं। इनकी दृष्टि में शंकर ही पूर्ण दार्शनिक हैं। इनका दर्शन ही कम्पलिट फिलॉसफी कहलाता है। शंकर की तुलना प्लेटो और ब्रेडले से भी की जाती रही है किन्तु दोनों में भिन्नता भी है।
अद्वैतवादियों की सत्यता एवं असत्यता सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए एच. एम. भट्टाचार्य ने ठीक ही लिखा है- "The Advaitist... A pure unity can not admite of any degree either of truth or of reality. The doctrine of Adhyîsa tells us that our empirical world and our experiences of it all but products of illusion, so that neither experience, nor its
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