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भारतीय दर्शन में सत्य एवं भ्रम विषयक सिद्धान्तों का विवरण अत्यंत रोचक है। प्रत्येक दार्शनिक निकाय में अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार ही सत्य और भ्रम विषयक सिद्धान्तों का निरूपण किया है।
जहां जो वस्तु नहीं है, वहां उसका निश्चयात्मक ज्ञान एवं जो जिस प्रकार का नहीं है, उसे वैसे निश्चित करना भ्रम अथवा विपर्यय है। रस्सी को सर्प समझना भ्रम का उदाहरण है। भ्रम में सीप चांदी दिखाई देती है, मरुस्थल में जल का आभास होता है आदि। इन भ्रान्तिविषयक सिद्धान्तों को "ख्यातिवाद" कहते हैं।
ख्यातिवाद के अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए आचार्यों ने अन्य सिद्धान्तों का खण्डन और अपने मत का मण्डन भी किया है।
प्रभाकर मिश्र का अख्यातिवाद (विवेकख्यातिवाद)
इस सिद्धान्त के अनुसार सभी ज्ञान सत्य हैं। भ्रम किसी मिथ्या वस्तु का ज्ञान नहीं है, वरन् दो वस्तुओं के पृथक् ज्ञान को एक-दूसरे से गड़बड़ा देने से होता है। रज्जु में सर्प-ज्ञान को भ्रम कहते हैं। यहां हमें रज्जु का प्रत्यक्ष और सर्प का स्मृति ज्ञान होता है। यहां विवेक न रहने पर हम रज्जु को ही सर्प मान लेते हैं। यह भ्रम किसी दोष के कारण होता है। 'प्रभाकर' इसे "स्मृति दोष" अर्थात् स्मृति में बाधा या आवरण उत्पन्न होना मानते हैं। उनके अनुसार किसी ज्ञान को मिथ्या मानना उसे ज्ञान न मानने के समान है। यह मत मान्य नहीं हो सकता। यदि सर्प के ज्ञान को हम स्मृति मानें तो प्रश्न होगा कि वह हमें दिखाई क्यों देता है? यदि स्मृति होते हुए भी दिखाई देना मानें तो स्मृति और प्रत्यक्ष में अन्तर नहीं रहेगा। प्रभाकर मीमांसक यह माने कि भ्रम के समय स्मृति का सर्प दिखाई नहीं देता है, तो यह अनुभव विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त स्मृति का अनुभव जैसा होता है, वैसा ही सर्प प्रतीत होना चाहिए। उसे सामने मानकर हम डर नहीं सकते हैं। स्मृति का सर्प परिचित होता है और भ्रम का सर्प अपरिचित है। इस कारण हम यह नहीं मान सकते हैं कि हमें स्मृति का सर्प दिखाई देता है। इस कारण नैयायिक और वेदान्ती यही मानते हैं कि भ्रम के समय शुक्ति (इदं रूप में) और चांदी दोनों हमारी चेतना में आते हैं, तभी हम कहते हैं कि "यह रजत है"| न रजत स्मृति रूप है और न केवल शुक्ति हमारी चेतना में आती है।
गंगेश के अनुसार भ्रांति में हमें दोनों वस्तुओं का ज्ञान होता है, एक का नहीं। शुक्ति का ज्ञान सामान्य प्रत्यक्ष रूप में होता है और रजत का ज्ञान "ज्ञान-लक्षण सन्निकर्ष" से होता है।
इसके अतिरिक्त अख्यातिवाद का सिद्धान्त इसलिए भी ऋटिपूर्ण है कि वह ज्ञान व्यक्ति को कर्म में प्रवृत्त नहीं कर सकता। एक ही वस्तु में शुक्ति और रजत का सत्य ज्ञान एक साथ नहीं हो सकता। यदि दोनों को आगे पीछे माने,
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