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अनुमान या निगमन भी नहीं कह सकते क्योंकि अनुमान का काम है दिये हुए वाक्यों से निष्कर्ष निकालना, न कि दी हुई घटना के कारण की उपपति करना। अनुमान हेतु से निगमन की ओर जाता है, अर्थापत्ति फल देखकर हेतु की कल्पना करती है।
अतः मीमांसक लोग प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के समान अर्थापत्ति को भी अलग एवं स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं और उसका लक्षण (अनुपवधुमानार्थदर्शनात् तद्पपादकीभूतार्थान्तरकल्पनम् अर्थापत्तिः) इस प्रकार करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी अनुप-पद्यमान अर्थ को देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना जिस प्रमाण के द्वारा की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहते हैं। समकालीन दार्शनिकों में एस. राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानन्द एवं दयानन्द सरस्वती ने भी इस प्रमाण की महत्ता को स्वीकार किया है।
अर्थापत्ति के प्रकार
___ अर्थापत्ति दो प्रकार की होती है-एक दृष्टार्थापत्ति और दूसरी श्रुतार्थापत्ति। जहां अनुपपद्यमान अर्थ को स्वयं आंखों से देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है, वह दृष्टार्थापत्ति कहलाती है और जहां किसी अन्य के मुख से अनुपपद्यमान अर्थ को सुनकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है, वह श्रुतार्थापत्ति कहलाती है। हिरियन्ना ने ठीक ही लिखा है, "जिस बात का अनुभव से विरोध प्रतीत होता हो, उसकी उपपत्ति के लिए किसी बात का अभ्युपगम कर लेना अर्थापत्ति है और इसलिए इसका स्वरूप प्राक्कल्पना के जैसा है। प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि अर्थापत्ति उस बात को व्यक्त कर देता है, जो ऐसे दो तथ्यों में पहले से निहित है, जो समुचित रूप से सत्यापित होने के बावजूद परस्पर असंगत लगते हैं। जैसे-हम जानते हैं कि देवदत्त जीवित है, पर उसे हम घर के अन्दर नहीं पाते, तो हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि वह अन्यत्र नहीं होता। अर्थापत्ति का एक अन्य प्रसिद्ध उदाहरण उस व्यक्ति का है जो दिन में न खाने के बावजूद भी मोटा-ताजा बना रहता है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह रात में खाता होगा। यह स्पष्टतः ज्ञात से अज्ञात को जानने का एक वैध तरीका है, लेकिन यह अनुमान से भिन्न प्रतीत नहीं होता। इसलिए नैयायिक इत्यादि कुछ लोग इसका अनुमान में अन्तर्भाव कर देते हैं और इसे स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते। इसकी स्वतन्त्रता के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि यहां निष्कर्ष को अनुमान से प्राप्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि यहां हेतु है ही नहीं। पहले उदाहरण में 'जीवित होना' अकेला हेतु का काम नहीं कर सकता, क्योंकि उसके आधार पर यह निष्कर्ष अनिवार्य रूप से नहीं निकलता कि देवदत्त घर से बाहर है। उससे तो यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि वह घर के अन्दर है। 'घर के अन्दर न होना भी अकेला हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इससे यह निष्कर्ष निकालना भी उतना ही उचित है कि देवदत्त जीवित नहीं है। अतः हमें बाध्य होकर 'जीवित होना' और 'घर के अन्दर
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