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ही पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। अब प्रश्न है कि कारण और कार्य क्या है? कार्य के अव्यवहित नियत पूर्ववर्ती घटना को कारण कहते हैं और कारण के नित्य अव्यवहित परवर्ती घटना को कार्य कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि पूर्ववत् अनुमान में भविष्यत् कार्य का अनुमान वर्तमान कारण से होता है। जैसे होने वाली वर्षा का अनुमान वर्तमान समय के मेघों को देखकर करना पूर्ववत् अनुमान का उदाहरण है। इसी तरह आकाश में काले बादल देखकर वर्षा के आधार पर अच्छी फसल का अनुमान करना इसी अनुमान का उदाहरण है।
राधाकृष्णन् के अनुसार-जब हम बादलों को देखते हैं और उनसे वर्षा का अनुमान करते हैं तो यह 'पूर्ववत्' अनुमान है, जिसमें हम पूर्ववत् को देखकर परिणामं रूपी परवर्ती वस्तु के अस्तित्व का अनुमान करते हैं। परन्तु इस अवस्था में अनुमान केवल कारण ही को देखकर नहीं किया गया, बल्कि पूर्व अनुभव के आधार पर भी किया गया है। जब हम नदी में आई हुई बाढ़ को देखते हैं और अनुमान करते हैं कि वर्षा हुई होगी, तो यह शेषवत अनुमान है, क्योंकि इसमें परवर्ती परिणाम को देखकर उसके पूर्ववर्ती कारण का अनुमान करते हैं।5।।
(ख) शेषवत् अनुमान-इसमें वर्तमान कार्य से विगत कारण का अनुमान किया जाता है। यानी यहाँ अनुवर्ती के आधार पर पूर्ववर्ती का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरण के लिए सभी जगहों में पानी की भरमार देखकर बाढ़ होने का अनुमान या कहीं मलेरिया बुखार का प्रकोप देखकर वहाँ अनोफिल मच्छरों की भरमार का अनुमान करना इसी अनुमान का उदाहरण है। पूर्ववत् एवं शेषवत् अनुमान कार्य कारण के नियत सम्बन्ध के द्वारा होते हैं। यानी दोनों अनुमान कार्य-कारण सम्बन्ध पर निर्भर हैं। यहाँ वस्तुओं के क्रमिक निराकरण विधि के द्वारा शेष का अनुमान किया जाता है। यानी अगर विकल्पों को छांट-छांटकर अन्त में शेष बचने वाले विकल्प के आधार पर कोई अनुमान निकाला जाता है तो शेषवत अनुमान कहलाता है। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है-शेष के समान।
(ग) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-इसे सामान्यतोदृष्ट भी कहा जाता है क्योंकि यहां साध्य अथवा लिंगी सामान्यतः अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) रहता है। कई ऐसे पदार्थ हैं, जिनका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस स्थिति में इनके कुछ लक्षणों या चिहनों के आधार पर इनके अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। पूर्ववत् एवं शेषवत् अनुमान जहां कार्य-कारण के नियत सम्बन्ध के द्वारा होते हैं, वहीं यह अनुमान (सामान्यतो दुष्ट) कार्य-कारण के द्वारा नहीं होता है। जैसे समय-समय पर देखने से मालूम पड़ता है कि चन्द्रमा आकाश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर रहता है। इससे उसकी गति को प्रत्यक्ष नहीं भी देखकर हम इस निश्चय पर पहुंचते हैं कि चन्द्रमा गतिशील है। इस अनुमान का आधार यह है कि अन्यान्य वस्तुओं के स्थान परिवर्तन के साथ-साथ उनकी गति का भी प्रत्यक्ष होता है। इसलिए हम यह अनुमान करते हैं कि चन्द्रमा के स्थानान्तरित होने के कारण उसमें भी गति होगी। यद्यपि चन्द्रमा की गति को हम प्रत्यक्ष नहीं देखते। इसी तरह आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। किन्तु इसके कई लक्षणों या गुणों (जैसे
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