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बाह्य इन्द्रियों की तरह भूतों का बना हुआ नहीं है। इनकी ज्ञानशक्ति किसी विशेष प्रकार की वस्तुओं के ज्ञान में ही सीमित नहीं रहती। वह सभी प्रकार के ज्ञानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए केन्द्रीय इन्द्रिय का काम करता है। न्याय की तरह वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा प्रभृति भी मन को अन्तरिन्द्रिय मानते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के साठवें श्लोक में बतलाया गया है fan "Turbulent by nature, the senses even of a wise man who is practising self-control, forcibly carry a way his mind, Arjuna" इसीलिये 61वें श्लोक में बतलाया गया है
तानि सर्वाणि संयम्य यक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। फिर 67वें श्लोक में बतलाया गया है "As the wind carries away a boat upon the waters, even so of the senses moving among senseobjects, the one to which the mind is joined takes away his discrimination." अतः इन्द्रियों का नियंत्रक मन ही है इसलिये मन को वश में करने की बात बतलाई गई है।
दूसरी दृष्टि से लौकिक प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हो जाते हैं-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, सविकल्पक प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञा। किसी वस्तु का अनिश्चित प्रत्यक्ष ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। इसमें वस्तु के अस्तित्व का आभास मात्र मिलता है। यहाँ वस्तु का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। इसीलिए अन्नंभट्ट ने लिखा है-"निष्प्रकारक ज्ञानम् निर्विकल्पकम्" यानी निष्प्रकारक ज्ञान ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहलता है। निर्विकल्पक ज्ञान के सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि "गौरिति विशिष्टज्ञानं विशेषणज्ञानजन्यं विशिष्टज्ञानत्वात्" अर्थात् यह गाय है आदि विशिष्ट-ज्ञान विशेषण-ज्ञान जन्य है क्योंकि विशिष्ट-ज्ञान है। जो विशिष्ट-ज्ञान होता है वह विशेषण-ज्ञानजन्य अवश्य होता है, जैसे यह दण्डी है, आदि ज्ञान, यह अनुमान प्रमाण रूप से विद्यमान है। विशेषण ज्ञान को भी यदि सविकल्पक माना जाए तो अनवस्था होगी। इस प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान की सिद्धि होती है। अतः यह प्रमाण भले ही किसी वस्तु का पूर्ण ज्ञान नहीं देता है, फिर भी प्रमाण की कोटि में आता है। इसमें वस्तु के अस्तित्व का मात्र आभास होता है। जैसे गहरी नींद में सोचते रहने पर कभी-कभी खट-खट की आवाज का ज्ञान होता है, परन्तु यह पता नहीं चलता है कि यह आवाज किसकी है। इसी तरह परीक्षा देते समय विद्यार्थी बाहर की आवाज सुनता रहता है, किन्तु लिखने में मग्न रहने के कारण वह उन आवाजों का पूर्ण अर्थ नहीं समझ पाता
सविकल्पक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विकसित रूप ही सविकल्पक प्रत्यक्ष है। इस प्रकार के प्रत्यक्ष में वस्तु का केवल आभास ही नहीं मिलता बल्कि उसका पूर्ण अर्थ ज्ञात हो जाता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष और सविकल्पक
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