________________
हमारे विचारों का पदार्थों से मेल है या नहीं, इसका निश्चय हमें सफल कर्म के प्रति अग्रसर करने की उनकी योग्यता से ही हो सकता है, जिसे प्रवृत्ति - सामर्थ्य कहा गया है। इसलिए यह स्पष्ट है कि पदार्थों के साथ विचारों का सम्बन्ध अनुकूलता का है. सादृश्य का नहीं है भैय्यायिक के मत से हमारे विचारों की यथार्थता तथ्यों के साथ उनके सम्बन्ध पर निर्भर करती है, और उनके मत में वह सम्बन्ध अनुकूलता का है, जिसका अनुमान हम विचारों की कार्यपद्धति से करते हैं। वस्तुतः उसी विचार को सत्य कहा जाता है कि जो हमें विचार द्वारा अभिलषित ज्ञान को प्राप्त करा सके और हमें परिस्थितियों के अनुसार सफलतापूर्वक कार्य करने के योग्य बना सके । तत्त्व- चिन्तामणि के प्रमाण्यवाद के अनुसार, बोधों की प्रमाणिकता अनुमान द्वारा स्थापित की जाती है। जब हम एक घोड़े को देखते हैं तो हमें सबसे पहले आकृति का बोध होता है, यह एक घोड़ा है, जिसके बाद एक अस्पष्ट-सा विचार मन में आता है कि "मैंने एक घोड़े को देखा है" और जब कोई घोड़े के समीप जाकर और वस्तुतः उसे छूकर देखता है, तभी उसे अनुमान होता है कि उसका बोध यथार्थ था और यदि आशा के अनुरूप प्रत्यक्ष ज्ञान उदय नहीं होता तो वह अनुमान करता है कि उसके बोध में भ्रान्ति हुई। हम जल को देखते हैं और उसके पास जाते हैं। यदि वह हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तो हम अपने जल-सम्बन्धी ज्ञान को यथार्थ कहने लगते हैं, क्योंकि जो यथार्थ नहीं है, वह सफल क्रियाशीलता के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकता। जब हमारी आकांक्षाएँ पूरी हो जाती हैं तो हम अपने ज्ञान की यथार्थता को जान जाते हैं। इस प्रकार हम परिणामों से कारणों का अनुमान करते हैं सत्य का यह सिद्धान्त अर्थात् विध्यात्मक दृष्टान्तों से यथार्थ ज्ञान की सफल उपलब्धि तथा अभावात्मक दृष्टान्तों से अयथार्थ ज्ञान की असफल उपलब्धि, आगमन कहलाता है।
यह व्यवहार्यता सत्य की केवल कसौटी मात्र है, विषय-वस्तु नहीं है। उपयोगितावाद के कुछ पक्षपोषकों का यह भी कहना है कि क्रियात्मक परिणाम ही सम्पूर्ण सत्य है और बौद्ध तार्किक इसका समर्थन करते हैं । बौद्ध तार्किकों का मत है कि "यथार्थ ज्ञान वह है, जिसका विरोध न हो सके। ऐसे ज्ञान को हम अविरोधी कह सकते हैं जो हमें दृष्ट पदार्थ की प्राप्ति करा सके।" पदार्थ की प्राप्ति से तात्पर्य उसके सम्बन्ध में सफलता पूर्वक कार्य करना तथा उसके स्वरूप को समझना है। नैय्यायिक के मत में सत्य व्यावहार्यता मात्र नहीं है, यद्यपि सत्य इससे जाना जाता है। प्रमाणित होने से पूर्व सत्य विद्यमान रहता है। निर्णय सत्य है, इसलिए नहीं कि वह प्रमाणित हो जाता है, बल्कि वह सत्य है इसलिए प्रमाणित हो जाता है। उक्त सिद्धान्त के सम्बन्ध में की गई अनेकों आपत्तियों की समीक्षा नैय्यायिकों ने की है। हमारी आकांक्षाएँ पूर्ण हो गई. इसका हमें निश्चय नहीं हो सकता । भ्रमात्मक सन्तोष के भी अनेकों उदाहरण सुने गए हैं। स्वप्नों में हमें भासमान सन्तोष होता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि स्वप्न की अवस्थाएं यथार्थ हैं। इसका उत्तर न्यायशास्त्र यों देता है कि केवल
19