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पदार्थ के विरोधी स्वरूप का है, तो वही उसका यथार्थ स्वरूप है। अप्रमा, भ्रम अथवा मिथ्या ज्ञान पदार्थ का उस रूप में ज्ञान है, जैसा कि वह नहीं है। यह केवल ज्ञान का अभाव नहीं है, बल्कि निश्चित भ्रांति है।
प्रश्न, परिप्रश्न, संशय आदि का भी मनुष्य के मानसिक इतिहास में एक स्थान है, यद्यपि उनकी यथार्थता अथवा अयथार्थता का प्रश्न नहीं उठता। व्यक्ति का विचार किए बिना किसी विषय-वस्तु के विषय में स्वतन्त्र रूप में निर्णय देना या किसी प्रकार का कथन करना तार्किक मूल्यांकन का उद्देश्य है। प्रत्येक ज्ञान एक प्रकार का ऐसा निर्णय है, जिसमें वह पदार्थ, जिसके विषय में निर्णय दिया जाए, विशेष्य है और उसके सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाए वह विशेषण है। न्यायशास्त्र में निर्णय का विश्लेषण उद्देश्य और विधेय के रूप में उतना नहीं किया जाता जितना कि विशेष्य और विशेषण के रूप में होता है। समस्त ज्ञान पदार्थों के स्वरूप तथा गुणों के विषय में होता है। उद्देश्य हमें यह बताता है कि एक वस्तु का अस्तित्व है और विधेय उसके विशेष गुणों का वर्णन करके उसके स्वरूप का निश्चय कराता है, जहां निर्णय पदार्थ के स्वरूप में मेल खाता है। उसे हम यथार्थ ज्ञान कहते हैं। प्रत्येक विषय का अपना वास्तविक स्वरूप होता है और विचार विशेष्य तथा विशेषण में भेद करता है और प्रमाणित करता है कि दोनों वास्तविक जगत् में परस्पर संयुक्त पाए जाते हैं। यह कहा जाता है कि प्रमाण हमें वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराते हैं। घट रूपी पदार्थ तथा उसके ज्ञान का जो सम्बन्ध है, वह समवाय सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि घट विषयक ज्ञान आत्मा का एक गुण है, घड़े का गुण नहीं है और न ही यह सम्बन्ध संयोग सम्बन्ध है, क्योंकि संयोग-सम्बन्ध केवल द्रव्यों में ही संभव है, जबकि ज्ञान द्रव्य नहीं बल्कि गुण है। तो भी पदार्थ और पदार्थ के ज्ञान के मध्य एक सम्बन्ध होना अवश्य चाहिए, जिससे निश्चित और यथार्थ परिणाम तक पहंचाया जा सके। इस प्रकार हमारे निर्णय का एकमात्र संभव नियामक कारण घट का स्वरूप ही हो सकता है। इस प्रकार के सम्बन्ध को स्वरूप-सम्बन्ध कहते हैं, जिसकी परिभाषा भीमाचार्य के न्यायकोष में इस प्रकार की गई है कि "ऐसी अवस्था में जबकि निश्चित ज्ञान अन्य किसी सम्बन्ध अर्थात् समवाय अथवा संयोग के द्वारा प्राप्त न हो और इसकी सत्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य हो। यह प्रमेय पदार्थ तथा बोध के मध्य अपने ही ढंग का एक निराला सम्बन्ध है। ज्ञानरूप कार्य, जो ज्ञान की क्रिया अथवा प्रक्रिया से स्पष्टतः भिन्न है, स्वयं में न तो भौतिक पदार्थ है और न केवल एक मानसिक अवस्था है। यह सार तत्त्व अथवा उस पदार्थ का स्वरूप है जो जाना जाता है। यदि बाह्य ज्ञान में ज्ञान का विषय स्वयं भौतिक सत्ता है तो उस अवस्था में भ्रांति हो ही नहीं सकती। उसके विषय में हर एक व्यक्ति का विवरण अवश्य सत्य होना चाहिए। यह समझना कि जब हम उत्तरी ध्रुव के विषय में सोचते हैं तो वह वस्तुत: हमारी चेतना में आ जाता है, तथ्य के साथ मेल नहीं खाता। यदि यह केवल एक मानसिक अवस्था है तो हम ज्ञानसापेक्षतावाद (विषयीविज्ञानवाद) के भंवर में आ फंसते हैं। ज्ञान
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