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और अन्य को भी अधीन करूंगा। ऐसे ही व्यक्तियों को नियंत्रित करने के लिए रामधारीसिंह दिनकर ने कहा है कि मार्क्स से डरे हुए व्यक्तियों, अथवा समाज से कह दो कि ऐसे सांसारिक व्यक्ति अथवा संन्यासी के लिए अगर मार्क्स दुश्मन हैं तो समझ लेना चाहिए कि उसके लिए गांधी भी (उनका) चौकीदार नहीं बन सकते हैं। यहां गांधी की बात ही नहीं बल्कि अठारह पुराणों की मान्यता है कि परोपकार ही पुण्य कार्य है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी सर्वभूत हिते रताः की शिक्षा दी गई है।
उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक या सांस्कृतिक विचारक अपने युग में दर्पण का प्रतिबिम्ब होते हैं। वे समाज में आने वाले संकट और खतरे का पुर्वानुमान या भविष्यवाणी भी करते हैं। इसी कारण वे युगद्रष्टा या विचारक भी कहलाते हैं। आदिकाल से लेकर आज तक के सभी विचारकों की अध्ययन पद्धतियां भिन्न-भिन्न रही हैं, निष्कर्ष भी पृथक्-पृथक् रहे हैं, फिर भी सबने मिलते-जुलते समाज, कुल या वंश अथवा पार्टियों पर अपने विचारों को केन्द्रित किया है। प्राचीन काल में देवता के गुरु बृहस्पति ने बतलाया है कि "दण्डनीति से शून्य पुत्र भी एक शत्रु है। ऐसे शिक्षक के उपदेशों अथवा शिक्षाओं की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, जिनको दण्डनीति का ज्ञान नहीं है।"
बृहस्पति के उपर्युक्त विचार कौटिल्य के अर्थशास्त्र अथवा नीतिदर्पण में वर्णित विचारों से मेल न खाकर शुक्र के विचारों से मिलते-जुलते हैं। राजनीति का प्रवेश मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में होना चाहिए। इस ज्ञान के कारण ही कोई व्यक्ति सम्मान तथा प्रेम का पात्र होता है। बृहस्पति के अनुसार दण्डनीति की स्थिति तथा उसका अध्ययन भूत, वर्तमान तथा भविष्य में में चारों वर्ग की सन्तानों को करना चाहिए। विश्व को चार काल चक्रों (time cycles) में विभाजित करते हए उनका कहना है कि कृत युग में मनुष्य विद्वान तथा दण्ड नीति के ज्ञान से परिचित होते हैं, त्रेतायुग के व्यक्ति या समाज सक्रिय तथा नीति में कशल होते हैं. जैसे रघ. दिलीप, हरिश्चन्द्र, राजाराम आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। द्वापर युग के समाज अथवा व्यक्ति तन्त्र के गुरुओं का अनुसरण करते हैं तथा नीति के ज्ञाता रहे हैं, जैसे-कृष्ण, बलराम, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि कलियुग के व्यक्तियों को ज्ञान तथा क्रिया के क्षेत्र में दण्डनीति का ज्ञान प्राप्त है। इसके बाद के मनुष्य जीवन तथा वेशभूषा इत्यादि में विरोधी नियमों का पालन करने वाले दण्डनीति के ज्ञान से शून्य होते हैं। जो व्यक्ति दण्डनीति के ज्ञान से स्वयं को वंचित रखता है, वह अग्नि कीज्वाला में उसी प्रकार प्रवेश करता है, जिस प्रकार एक पतंगा स्वयं को मूर्खतावश लौ में नष्ट कर लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी इस बात की सम्पुष्टि की गई है।
बृहस्पति के अनुसार दण्डनीति के प्रभाव से पवित्र सूर्य, प्रतापी राजा, वायु, देवता तथा अन्य नक्षत्रों का स्थायित्व बना हुआ है। इस नीति का मुख्य ध्येय धर्म, धन तथा आनन्द प्राप्त करना है। मनु से पूर्व भी नाना प्रकार के पुराण अथवा पथ थे किन्तु उनमें परस्पर विरोध था। किसी एक मत की सर्वमान्यता
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