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को बहुधा खोजना पड़ता है। इसलिए इस विधि को खोज या अन्वेषण अथवा आविष्कार की विधि कहते हैं।
जहां तक इसकी (अवशेष विधि की) विशेषताओं (गुणों) का प्रश्न है, वे निम्नलिखित हैं
1. इस विधि का प्रयोग वहीं संभव होता है, जहां घटना की आंशिक
व्याख्या हुई रहती है। यानी इस विधि का उपयोग वहां होता है, जहां मिश्रित घटना के अधिक भाग ज्ञात हो जाते हैं और इसका छोटा भाग अज्ञात रहता है। इस छोटे भाग की जानकारी के लिए
इस विधि की सहायता ली जाती है। 2. यह विधि निरीक्षण प्रधान न होकर निगमन या गणना प्रधान विधि
मानी जाती है। 3. यह विधि व्यतिरेक विधि का एक विशेष रूप मानी जाती है। B.N.
Roy के शब्दों में, "The method of Residues may be regarded a special modfication of the method of difference, because, the principle underlying both these methods are the same, viz., if there are two instances." यह विधि हुत सरल एवं आसान है। यह साधारण ज्ञान पर आधारित है। अतः इसका प्रयोग हम अपने व्यावहारिक जीवन में हमेशा करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग राजनीति, अर्थशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि क्षेत्रों में भी होता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों में यह विधि लाभदायक सिद्ध होती है। जटिल समस्याओं में से कुछ अंश का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर शेष के समाधान करने में यह विधि काफी सहायक है। शेष समस्याओं के कारण का संकेत इस विधि से मिल जाता है। इस संकेत को लेकर आगे बढ़ा जाता है और इसके परिणामस्वरूप कभी-कभी कई बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान में सफलता हासिल की जाती रही है। हरशेल ने तो वैज्ञानिक उन्नति में इस विधि को प्रमुख माना है। इन्होंने यह स्वीकार किया है कि विज्ञान के बहुत बड़े-बड़े अनुसंधान इस विधि के द्वारा ही संभव हो सके हैं। नेपच्यून ग्रह को इस विधि की सहायता से ही ढूंढ निकाला गया है। इतना ही नहीं इससे यह भी पता लगाया गया है कि इस ग्रह के प्रभाव से युरेनस का रास्ता कुछ बदल जाता है। आर्गन गैस का पता भी
इसी विधि से लगा है। अब जहां तक इसके दोष का प्रश्न है, वे निम्नलिखित हैं
(क) इस प्रणाली के द्वारा कारण सिद्ध नहीं होता बल्कि कारण का संकेत मिलता है। किन्तु कारण के संकेत मिलने पर उसकी परीक्षा की आवश्यकता बनी रहती है।
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