________________ बातें होनी चाहिए, जो उन सबमें सामान्य हैं, क्योंकि इस दर्शन के मूलभूत अभ्युपगम के मुताबिक कार्य या परिणाम को तत्त्वतः उपादान-कारण से अभिन्न होना चाहिए। इसीलिए सांख्य के परिणामवाद की आलोचना करते हुए शंकराचार्य ने कहा है कि सांख्य का सिद्धान्त आत्म विरोधी हो जाता है। सांख्य की दृष्टि में मिट्टी घड़े में बदल जाती है। अगर यह बदलना वास्तविक है तो घड़े का आकार और रूप भी वास्तविक है। शंकर का कहना है कि यह आकार और रूप तो नया है, यह तो मिट्टी में नहीं था तो यह मानना पड़ता है कि घड़े का आकार और रूप घड़े के बनने के पूर्व नहीं था, फिर वह असत् है। तो असत् से सत् की उत्पत्ति को सांख्य-विचारकों ने मान लिया है। अतः सांख्य और योग अपने सत्कार्यवाद की नींव स्वयं खोद डालता है। इसीलिये शंकर ने परिणामवाद का खण्डन करके विवर्तवाद की सम्पुष्टि की है। विवर्त का अर्थ प्रतीत होता है। इसलिये विवर्तवाद के अनुसार कारण वास्तव में कार्य में परिणत नहीं हो जाता बल्कि केवल ऐसा प्रतीत होता है। ब्रैडले भी इसे आभास ही मानते हैं। इनकी दृष्टि में परिवर्तन एक प्रतीति है। वास्तविक नहीं है। हमें ऐसा लगता है कि मिट्टी घड़े में बदल गई। वास्तव में ऐसा नहीं होता है। अतः कार्य-कारण सम्बन्ध क्रमागत नहीं हो सकता है और इसलिए दुर्भाग्यवाश वह कार्य कारण सम्बन्ध नहीं, अपितु आभास मात्र है।18 127