________________ भारतीय विचारकों ने इस विषय पर अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला है। यहां हम कुछ प्रमुख मतों का उल्लेख करेंगे। बौद्धमत-बुद्ध ने कार्य-कारण-सिद्धान्त को प्रतीव्यसमुत्पाद (Theory of Dependent origination) कहा है। प्रतीव्यसमुत्पाद पद दो शब्दों के योग से बना है-प्रतीव्य और समुत्पाद। 'प्रतीप्य' का अर्थ है किसी वस्तु के उपस्थित होने पर (Depending) और 'समुत्पाद' का अर्थ है-किसी अन्य वस्तु की उपस्थिति (Origination) | इस तरह 'प्रतीव्य समुत्पाद' का शाब्दिक अर्थ हुआ-एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उपस्थिति। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और कार्य अपने कारण पर आश्रित रहता है। प्रत्येक वस्तु अपने बाद कुछ छोड़ जाती है। उदाहरण-'क' का कारण 'ख' और फिर ख का कारण 'ग' है। इस प्रकार कार्य कारण की एक श्रृंखला बन जाती है। बुद्ध ने इसे पंचकारिणी के द्वारा स्पष्ट किया है। _ प्रतीव्यसमुत्पाद को सत्य मानने पर यह भी मानना आवश्यक हो जाता है कि बौद्धदर्शन दुःख के कारण में बारह कड़ियां (Steps) मानता है। कड़ी पर प्रतीव्यसमुत्पाद सिद्धान्त लागू होता है। यहाँ कार्य से कारण की ओर और फिर कारण से कार्य की ओर प्रस्थान किया जा सकता है। दुःख से प्रस्थान करके अविद्या (Ignorance) पर पहुँचते हैं। दुःख रूपी कार्य के कारण में बारह कड़ियां होने के कारण प्रतीव्यसमुत्पाद को "द्वादश निदान' (The twelve links of suffering) भी कहते हैं। बुद्ध ने कहा कि दुःख के कारणों को यदि नष्ट कर दिया जाय तो दुःख भी नष्ट हो जाएगा। दुःख रहित अवस्था का नाम ही निर्वाण है। निर्वाण भी घटना है। इसका भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। प्रज्ञाशील और समाधि ही इसके कारण है। इस प्रकार प्रतीव्यसमुत्पाद के अनुसार प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। कारण के अभाव में कोई घटना नहीं घट सकती है। सांख्यमत-कार्य-कारण सिद्धांत को सांख्य दर्शन में 'सत्कार्यवाद' कहा जाता है। यहाँ मुख्य प्रश्न यह है-क्या कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने उत्पादन कारण में विद्यमान रहना है? (Does the effect pre-exist in its material cause?) सांख्य विचारक इसका भावात्मक उत्तर देते हैं। इनके अनुसार कार्य अपनी उत्पति के पूर्व अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। पतंजलि एवं वेद व्यास ने भी इस मत की सम्पुष्टि की है। ठीक इसके विपरित न्याय-वैशेषिक 'असत्कार्यवाद' का समर्थन करता है। इसके अनुसार कार्य का आरम्भ नये सिरे से होता है। कार्य अपने उपादान कारण में पहले से विद्यमान नहीं रहता है। न्याय-वैशेषिक मत के अनुसार कार्य-कारण-सम्बन्ध का ज्ञान न तो जन्मजात (Innato) है और न इसका अनुभव होता है। यह सम्बन्ध अपने-आप में अनुभवजन्य नहीं है। जब दो पदार्थ सदैव एवं अनिवार्य रूप से एक-दूसरे के आगे-पीछे आते हैं तो इनमें कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर लिया जाता है। कारण में प्रसार कार्य अनुसार 124