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________________ अर्थ:- चक्रवर्ती विचारते हैं कि 'अहो ! देखो! ये भोग कैसे महा पाप के संयोग रूप हैं कि डाली के कमल में इस भौंरे ने घ्राण इन्द्रिय के वशीभूत हो भोगों में अचेत होकर सारी रात के समूह में विलाप करके अपने प्राणों को हर लिया। केवल एक इन्द्रिय के वशीभूत इसकी यह दशा है तो मैं तो पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों का भोगी हूँ ,योगी नहीं हुआ हूँ और विषय-कषायों के जाल में ही पड़ा हूँ| यदि अभी भी अपना हित नहीं करूँगा तो न जाने कौन सी गति में जाकर पड़ जाऊँगा'-ऐसा विचार करके पुत्रों को बुलाकर उन्होंने निम्नोक्त वचन कहे। सवैया अहो सुत! जग रीति देख के हमारी नीति, भई है उदास बनोवास अनुसरेंगे। राजभार शीस धरो परजा का हित करो, __ हम कर्म शत्रुन की फौजन सूं लरेंगे। सुनत वचन तब कहत कुमार सब, हम तो उगाल' कू न अंगीकार करेंगे। आप बुरो जान छोड़ो हमें जगजाल बोड़ो', तुमरे ही संग पंच महाव्रत धरेंगे।। अर्थः- 'अहो पुत्रों! इस संसार की रीति देखकर हमारी नीति उदास हो गई है, अब तो हम वनवास का ही अनुसरण करेंगे। तुम तो इस राज्य के भार को शीस पर धारण करके प्रजा का हित करो और हम कर्म शत्रुओं की फौज से लड़ाई करेंगे। पिता के ऐसे वचन सुनकर सारे कुमार कहने लगे कि 'हम तो आपके उगाल को अंगीकार नहीं करेंगे, जिस जगत के जाल को आप बुरा जानकर छोड़ रहे हैं उसी में हमें फँसा रहे हैं, हमें यह स्वीकार नहीं हैं, हम तो आप ही के साथ पाँच महाव्रतों को धारण करेंगे।' 拳拳拳拳拳拳泰拳拳拳拳拳拳拳拳拳拳泰拳帶帶拳拳拳拳 १.वमन-उल्टी। २.डुबा रहे हो। . .. .. ..... . ooooo
SR No.009488
Book TitleVajradant Chakravarti Barahmasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherKundalata and Abha Jain
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size184 MB
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