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________________ दृढ़ श्रद्धान होना चाहिए कि बाहर में सब कुछ मेरे ही कर्म के उदय के अनुसार चलता है। दूसरे यह बात भी अन्दर में जम जानी चाहिए कि जीव स्थिति से नहीं वरन् अपने ही विकल्पों से, कषायों से दु:खी हैं और कषाय भी कोई दूसरा मुझे नहीं करा सकता, वह मेरी ही असावधानी के कारण होती है, इसमें दूसरे का तो बिल्कुल भी दोष नहीं हैं, दूसरा तो बाह्य निमित्त मात्र हैं। सम्यग्दर्शन के लिए एक बार तो स्वच्छ पानी की तरह भावों में निर्मलता आ जानी चाहिए, अत्यन्त निर्मल परिणाम हुए बिना, संसार-शरीर-भोगों से अरुचि हुए बिना, जोरदारी से बाहर से विरक्ति आए बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। जीवन को स्वाध्यायमय बना लेना। हमारा सारा शुभ-पूजापाठ, जाप, स्वाध्याय आदि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के ही अभिप्राय से हो। शास्त्र पढ़ना, दिन-रात पढ़ना परन्तु सिर्फ आत्म उपलब्धि के लिए; पुण्यबंध की, किसी भी लोभ की, मान बड़ाई की, पंडिताई की, वाद-विवाद की या और कोई दृष्टि नहीं होनी चाहिए। शास्त्र पढ़कर यही खोजो कि आत्मा कैसे मिले। आत्मा की तीव्र भावना आत्मदर्शन की जननी हैं। यह अन्दर टीस होनी चाहिए, तड़फ होनी चाहिए, दिन-रात चैन नहीं पड़ना चाहिए, खाते-पीते कुछ भी कार्य करते यह धुन चलती ही रहनी चाहिये कि कैसे आत्मदर्शन हो, शीघ्र ही हो। अन्त:करण में सिर्फ एक ही लगन, एक ही अभिप्राय होना चाहिए और कुछ भी नहीं। आत्मा चाहिए, सिर्फ आत्मा ही चाहिए-एक ही रुचि, एक ही अभिलाषा हो बस। पाप के उदय का भय न हो, चाहे किसी भी सम्बन्धी का मरण हो जाए, धन चला जाए, शरीर बीमार पड़ जाए या कॅसा भी कमजोर हो जाए मुझे चिन्ता नहीं, परवाह नहीं। ऐसे ही मुझे पुण्य के फल की
SR No.009488
Book TitleVajradant Chakravarti Barahmasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainsukh Yati, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherKundalata and Abha Jain
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size184 MB
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