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________________ ९६ श्री नवकार महामंत्र कल्प मस्तक में ध्यान करना और ऐसे ध्यानके आवेशसे " सोsहं, सोऽहं ” वारम्वार वोलनेसे निश्चयरूपसें आत्माकी परमात्मा के साथ तन्मयता हो जाती है । इस तरहसे तन्मयता हो जानेके बाद अरागी, अद्वेषी, अमोही, सर्वदर्शी, देवताओंसेभी पूजनीय ऐसे सच्चि - दानन्द परमात्मा समवसरणमें विराजमान होकर धर्मदेशना दे रहे हों, ऐसी अवस्थाका चितवन करके आत्माको परमात्मा के साथ अभिन्नतापूर्वक चिन्तवन करना चाहिए, जिससे ध्यानी पुरुष कर्मरहित होकर परमात्मपद पाता है । बुद्धिमान ध्यानी योगी पुरुषको चाहिए कि मंत्राधिपके उपर व नीचे रेफ सहित कला और बिन्दुसे दबाया हुवा - अनाहत सहित सुवर्णकमलके मध्यमें विराजित गाढ चन्द्र किरणो जैसे निर्मल आकाशसे सञ्चार कर दर्श दिशाओंको व्याप्त करता हो इस प्रकार चिन्तवन करना । वाद में मुखकमलमें प्रवेश करता हुवा, भ्रकुटीमें भ्रमण करता हुवा, नेत्रपत्रोंमें स्फुरायमान, भाल मण्डल में स्थिररूप निवास करता हुवा, तालुके छिद्रमेसे अमृतरस झरता हो और
SR No.009486
Book TitleNavkar Mahamantra Kalp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherChandanmal Nagori
Publication Year1942
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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