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श्री नवकार महामंत्र कल्प
मस्तक में ध्यान करना और ऐसे ध्यानके आवेशसे " सोsहं, सोऽहं ” वारम्वार वोलनेसे निश्चयरूपसें आत्माकी परमात्मा के साथ तन्मयता हो जाती है । इस तरहसे तन्मयता हो जानेके बाद अरागी, अद्वेषी, अमोही, सर्वदर्शी, देवताओंसेभी पूजनीय ऐसे सच्चि - दानन्द परमात्मा समवसरणमें विराजमान होकर धर्मदेशना दे रहे हों, ऐसी अवस्थाका चितवन करके आत्माको परमात्मा के साथ अभिन्नतापूर्वक चिन्तवन करना चाहिए, जिससे ध्यानी पुरुष कर्मरहित होकर परमात्मपद पाता है ।
बुद्धिमान ध्यानी योगी पुरुषको चाहिए कि मंत्राधिपके उपर व नीचे रेफ सहित कला और बिन्दुसे दबाया हुवा - अनाहत सहित सुवर्णकमलके मध्यमें विराजित गाढ चन्द्र किरणो जैसे निर्मल आकाशसे सञ्चार कर दर्श दिशाओंको व्याप्त करता हो इस प्रकार चिन्तवन करना । वाद में मुखकमलमें प्रवेश करता हुवा, भ्रकुटीमें भ्रमण करता हुवा, नेत्रपत्रोंमें स्फुरायमान, भाल मण्डल में स्थिररूप निवास करता हुवा, तालुके छिद्रमेसे अमृतरस झरता हो और