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लिए, सार
ज्ञान
मनुष्य के
हो चुके ਖ਼ੁਦ ਦੇ
कोई धर्मात्मा
दर्शनभ्रष्ट
जो मिथ्यात्व
पुरुषों को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी उनके चरणों में पड़ते हैं वे भी पाप उसकी अनुमोदना करने के कारण बोधि अर्थात रत्नजय की माँ को ॥ गा०१३ || जहाँ बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग होता है, मन
से शब्द रहता है और खड़े होकर होता है | गा- १४ ॥ जिनवचन तत्त्व निर्दिष्ट हैं, उनके जानना ॥ १६ ॥ रहते हैं और गुणों के धारक आचार्य
वचन- काय - इन तीनों योगों में संयम स्थित रहता है, ज्ञान कृत-कारित अनुमोदना पाणिपान आहार किया जाता है-ऐसा मूर्तिमान दर्शन में जो छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात स्वरूप का जो पुरुष श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय में सदा लीन आदि का गुणगान करते हैं वे वन्दनीय हैं, पूज्य हैं ॥ २३॥ दिगम्बर रूप का देखकर ईर्ष्याभाव से उसे नहीं मानता है अर्थात् उसका विनय सत्कार नहीं करता है वह संयम धारण करने पर भी मिथ्यादृष्टि ही है || गा - २४॥ शील सहित और देवों के द्वारा वन्दनीय जिनेश्वर के रूप को देखकर भी जो गर्व करते हैं, विनयादिक नहीं करते वे सम्यक्त्व से रहित ही हैं ||२५|| मैं तप से सहित श्रमणों को, उनके शील को, मूलोत्तर गुणों को, ब्रह्मचर्य को और मुक्तिगमन को सम्यक्त्व सहित शुद्ध भाव से वन्दना कहूँ जो चौसत चमर सहित है, चौतीस अतिरायों से युक्त हैं, निरन्तर बहुत प्राणि का हित जिनसे होता है और कर्मक्षय के कारण हैं, ऐसे तीर्थंकर परम देव वन्दना के दीख है। - २८० ज्ञान, दर्शन, उप और चारित्र इन चारों समायोग होने पर जो संयम गुण हो तो उससे जिनशासन "में मोक्ष होना अर्थात् निर्वाण कहा गया
-
है || गा०३० //
है। सम्यक्त्व
सार है
गुणों में दोषों अन्य धर्मात्मा
है और रु
होता है और चारित्र से निर्वाण
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होता है । गा-३शा ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व
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सहित तप और चारित्र - इन चारों के समागम
होने पर ही जीव सिद्ध हुए हैं इसमें सन्देह नही
है ||३२|| जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याण की
परम्परा के साथ पाते हैं। सम्यग्दर्शन रत्न
गाथा चित्रावली
आचार्य कहते हैं कि मैं आद्य तीर्थकर श्री वृषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके, सम्यग्दर्शन के मार्ग को क्रमपूर्वक संक्षेप से कहूँगा !! गा०|| जो पुरुष सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य से वर्द्धमान हैं और इस पंचम काल के मलिन पाप से
इस सुर-असुरों से भरे हुए लोक में पूज्य है | दर्शन पा०, गा०३३ ॥
रहित हैं, वे सब शीघ्र ही.. उत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं ॥ ६ ॥ जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट
हैं और चारित्र से भी भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्टों में भी विशेष तथा अपने सिवाय अन्य जनों को भी भ्रष्ट करते हैं ॥ गा०८ ॥ जो पुरुष संयम, तप, नियम, योग और मूलगुणों व उत्तरगुणों का धारक है, उसके का आरोपण करते हुए मत से भ्रष्ट पापात्मा जीव स्वयं भ्रष्ट हैं तथा पुरुषों को भी भ्रष्ट देते हैं। - दर्शन को धारण करने वाले
१-५७
उत्तम गोत्र, सहित मनुष्य पर्याय को पाकर व वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त कर यह जीव अविनाशी सुख और मोक्ष को पाता है ॥ ३४॥ एक हजार आठ लक्षण और चौंतीस अतिशय सहित जिनेन्द्र भगवान जब तक इस लोक में विहार करते हैं तब तक उनके शरीर सहित प्रतिबिंब को स्थावर प्रतिमा कहते हैं || गा० ३५॥ जो बारह प्रकार के तप से युक्त हो, विधि के बल से अपने कर्मों का क्षय करके व्युत्सर्ग से शरीर छोड़ते हैं वे सर्वोत्कृष्ट निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं । दर्शन पाहुड़ ॥
॥ गाथा ३६ ॥