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अष्ट पाहुड़।
स्वामी विरचित
o आचार्य कुन्दकुन्द
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स्वभाव उत्तम होता है, वे दोष देखकर क्षमा ही करते हैं।
यहाँ कोई कहता है कि 'तुम्हारी बुद्धि अल्प है तो ऐसे महान ग्रंथ की वचनिका क्यों की?
उसको ऐसे कहना कि 'इस काल में मुझसे भी मंदबुद्धि बहुत हैं उनके समझने के लिए की है। इसमें सम्यग्दर्शन को दढ़ करने का प्रधानता से वर्णन है इसलिए अल्पबुद्धि भी बांचें, पढ़ें और अर्थ का धारण करें तो उनके जिनमत का श्रद्धान द ढ़ हो-यह प्रयोजन जान जैसा अर्थ प्रतिभास में आया वैसा लिखा है और जो बड़े बुद्धिमान हैं वे मूल ग्रन्थ को पढ़कर ही श्रद्धान द ढ़ करेंगे और इसमें कुछ अर्थ का अपभ्रंश होगा तो उसको शुद्ध करेंगे, मेरे कोई ख्याति-लाभ का तो प्रयोजन है नहीं, धर्मानुराग से यह वचनिका लिखी है इसलिए बुद्धिमानों के द्वारा क्षमा ही करने योग्य हूँ।'
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अर इस ग्रंथ की गाथाकी संख्या ऐसे है-प्रथम दर्शनपाहड की गाथा-३६। दूसरे सूत्रपाहड की गाथा-२७। तीसरे चारित्रपाहड की गाथे-४५। चौथा बोधपाहुड की गाथा-६२। पांचवे भावपाहुड की गाथा–१६५ | छठे मोक्षपाहुड की गाथा-१०६ । सातवें लिंगपाहुड की गाथा-२२। आठवें शीलपाहुड की गाथा-४०-ऐसे सब मिलि गाथा ५०३ हुई।
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छप्पय जिन दर्शन' निग्रंथ रूप, तत्वारथ धारन। सूतर२ जिन के वचन, सार चारित व्रत पारन।। बोध जैन मत जांनि, आन का सरन निवारन।
भाव' आत्मा शुद्ध मांनि, भावन शिव कारन।। फुनि मोक्ष कर्म का नाश है, लिंग सुधारन तजि कुनय। धरि शील स्वभाव संवारना, अठ पाहुड का फल सुजय।। १।।
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