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अष्ट पाहड़
स्वामी विरचितYoe
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o आचार्य कुन्दकुन्द
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सम्पूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है-ऐसा जानना। यह जिनवचन का और शील का माहात्म्य है।।३६।।
उत्थानिका
आगे ग्रन्थ को पूर्ण करते हुए ऐसा कहते हैं कि 'ज्ञान से सर्व सिद्धि है, यह
सर्वजन प्रसिद्ध है सो ज्ञान तो ऐसा हो उसको कहते हैं :अरहते सुहभत्ती सम्मत्तं दसणेण सुविसुद्ध । सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं !।। ४०।।
अरहंत के शुभ भक्ति समकित, दर्श से सुविशुद्धि युत । युत शील विषय विराग इनबिन, ज्ञान नहिं कहलाय है।।४० ।।
अर्थ
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अरहंत में जो भली भक्ति है सो तो सम्यक्त्व है सो कैसा है सम्यक्त्व-दर्शन से विशुद्ध है अर्थात् तत्त्वार्थों का निश्चय-व्यवहार स्वरूप श्रद्धान और बाह्य में जिनमुद्रा नग्न दिगम्बर रूप का धारण तथा उसका श्रद्धान-ऐसे दर्शन से विशुद्ध अर्थात् अतिचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंत भक्ति रूप सम्यक्त्व है तथा शील है सो विषयों से विरक्त होना है तथा ज्ञान भी यह ही है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा कहा है-सम्यक्त्व व शील के बिना तो ज्ञान मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान है।
भावार्थ यह सब मतों में प्रसिद्ध है कि 'ज्ञान से सर्व सिद्धि है और ज्ञान होता है सो शास्त्रों से होता है, वहाँ आचार्य कहते हैं कि हम तो उसको ज्ञान कहते हैं जो सम्यक्त्व एवं शील सहित हो-ऐसा जिनागम में कहा है। इससे भिन्न ज्ञान कैसा है ? इससे भिन्न ज्ञान को तो हम ज्ञान कहते नहीं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व और शील होते हैं सो जिनागम से होते हैं। वहाँ जिससे सम्यक्त्व और शील हुए उसकी यदि भक्ति न हो तो सम्यक्त्व कैसे कहा जाये, जिसके वचन के द्वारा वह पाया जाये उसकी यदि भक्ति हो तो जाना जाता है कि इसके श्रद्धा
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