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अष्ट पाहुड़..
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'शील से ही आत्मा शोभता है, इसको द ष्टान्त से दिखाते हैं :
उदधीव रदणभरिदो तवविणयं सीलदाणरयणाणं । सोहे तोय' ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तं ।। २८।। तप, विनय, शील अरु दान रत्नों में, रत्नपूरित उदधि सम। शोभता जीव सशील पाता, अनुत्तर निर्वाण को ।।२8 ।।
अर्थ जैसे समुद्र रत्नों से भरा है तो भी जल सहित शोभा पाता है वैसे यह आत्मा तप, विनय, शील एवं दान-इन रत्नों में शील सहित शोभा पाता है क्योंकि जो शील सहित हुआ उसने 'अनुत्तर' अर्थात् जिसके परे और पद नहीं ऐसे निर्वाण पद को पाया।
भावार्थ जैसे समुद्र में रत्न बहुत हैं तो भी वह जल ही से समुद्र नाम पाता है वैसे आत्मा अन्य गुणों से सहित हो तो भी शील ही से निर्वाण पद पाता हैऐसा जानना ।।२८।।
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टि0-1.यहाँ गाथा की इस द्वितीय पंक्ति में सोहे तोय' (सं0-0भते तोयेन) पाठ दिया गया है जो
एकदम उपयुक्त है और मान्य ‘पं0 जयचंद जी' द्वारा किया गया अर्थ इसके एकदम अनुरूप है क्योंकि गाथा का अर्थ करते हुए उन्होंने दष्टान्त दिया है-जैसे समुद्र रत्ननि करि भर्या है तौऊ जलसहित सोभै है' और सोहे तोय' पाठ का अर्थ है तोय अर्थात् जल सहित, सोहे अर्थात् सुभित होना '। 'सभी प्रतियों में व मु० प्रति में' भी सोहे तोय' के स्थान पर 'सोहेतो य' (सं0-भते च) पाठ उपलब्ध था जिसके साथ पं0 जी' कृत अर्थ की संगति ही नहीं बैठ रही थी क्योंकि गाथा में 'जल' अर्थवाचक कोई ब्द ही नहीं था। विचार करने पर समझ आया कि सोहे तोय' पाठ के दूसरे ब्द 'तोय' का तो' पहले ब्द के साथ जुड़कर 'सोहेतो य' पाठ बना और फिर इसकी ही परम्परा चल गई और 'सं0 छाया' भी इसके ही अनुरूप कर दी गई और सभी ने इस पाठ को ग्रहण कर लिया जो कि उपयुक्त नहीं।
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