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अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
• आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'यदि कदाचित् कोई विषयों से विरक्त नहीं हुआ परन्तु मार्ग विषयों से विरक्त होने रूप ही कहता है तो उसको तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है परन्तु जो विषय सेवन को ही मार्ग कहता है उसका तो ज्ञान भी निरर्थक है :विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इट्ठदरसीणं । उम्मग्गं दरसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं ।। १३।।
सन्मार्गदर्शी मार्ग पाता, हो विषय मोहित भले। होता निरर्थक ज्ञान है, उन्मार्गदर्शी जीव का ।।१३।।
अर्थ जो पुरुष इष्ट मार्ग को दिखाने वाले ज्ञानी हैं और विषयों से विमोहित हैं तो भी उनको मार्ग की प्राप्ति कही गई है परन्तु जो उन्मार्ग को दिखाने वाले हैं उनका तो ज्ञान पाना भी निरर्थक है।
भावार्थ पूर्व में कहा था कि 'ज्ञान में और शील में विरोध नहीं है परन्तु यह विशेष है कि यदि ज्ञान तो हो पर विषयासक्त हो तो ज्ञान बिगड़ जाता है तब शील नहीं होता। अब यहाँ ऐसा कहा है कि 'यदि ज्ञान पाकर कदाचित् चारित्रमोह के उदय से विषय न छूटें और इसलिए उनमें विमोहित रहे परन्तु मार्ग की प्ररूपणा विषयों के त्याग रूप ही करे तो उसे तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है परन्तु जो मार्ग का ही कुमार्ग रूप प्ररूपण करे, विषय सेवन को सुमार्ग बतावे तो उसका तो ज्ञान पाना निरर्थक ही है। ज्ञान पा करके भी जो मिथ्या मार्ग प्ररूपे उसके कैसा ज्ञान अर्थात् उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है।'
यहाँ ऐसा आशय सूचित होता है कि 'जो सम्यक्त्व सहित अविरत सम्यग्द ष्टि है सो तो भला है क्योंकि सम्यग्द ष्टि कुमार्ग की प्ररूपणा नहीं करता, स्वयं के चारित्रमोह का उदय प्रबल हो तब तक विषय नहीं छूटते इसलिए वह अविरत है और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे और विषय भी छोड़े परन्तु
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