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________________ 麻糕卐糕卐糕卐卐糕糕業業卐業卐業業卐卐米糕蛋糕 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित ाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिंडंति चदुरगतिं विसएसु विमोहिया मूढा ।। ७।। नर कई ज्ञान को जान भी, विषयादि में आसक्त हों । गति चार में ही भ्रमण करते, विषय विमोहित मूढ़ वे । । ७ ।। अर्थ कई मूढ-मोही पुरुष ज्ञान को जानकर भी विषय कषाय रूप भावों से आसक्त होते हुए चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करते हैं क्योंकि विषयों से विमोहित वे हुए फिर भी जिस गति को प्राप्त होते हैं उसमें भी विषय कषायों ही का संस्कार रहता है। भावार्थ ज्ञान को पाकर विषय - कषाय छोड़ना भला है अन्यथा ज्ञान भी अज्ञान तुल्य ही है । ।७।। | उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'ज्ञान पाकर ऐसा करे तब संसार कटता है' : जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा । छिंदंति चदुरगतिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ।। 8 ।। ज्ञाता हों ज्ञान के विषय विरत हों, भावना से सहित हों । तपगुण से युत हो छेदते वे, चार गति संदेह ना । । 8 ।। अर्थ पुनः जो ज्ञान को जानकर और विषयों से विरक्त होते हुए उस ज्ञान की बार-बार अनुभव रूप भावना सहित होते हैं वे तप और 'गुण' अर्थात् मूलगुण व उत्तरगुण युक्त होते हुए चतुर्गति रूप संसार को छेदते हैं, काटते हैं - इसमें संदेह नहीं है। 【卐糕糕卐業業 ८-१३ 【卐卐 ń業業業業業業業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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