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________________ अष्ट पाहुड़stion स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द 4000 HDoGS HDog/ TOVAVALYAN SANAMANAISA CAMWAMI 樂樂兼崇崇崇崇崇明崇明藥事業事業兼藥業先崇勇崇勇 णाणं णरस्स सारं सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं। सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ।। ३१।। है ज्ञान नर को सार तत्पश्चात् समकित सार हो। सम्यक्त्व से चारित्र हो, चारित्र से निर्वाण हो।।३१।। अर्थ (१) प्रथम तो इस पुरुष के ज्ञान सार है क्योंकि ज्ञान से सब हेय-उपादेय जाने जाते हैं फिर (२)इस पुरुष के सम्यक्त्व निश्चय से सार है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना ज्ञान मिथ्या नाम पाता है तथा (३) सम्यक्त्व से चारित्र होता है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना चारित्र भी मिथ्या ही है तथा (४) चारित्र से निर्वाण होता है। भावार्थ चारित्र से निर्वाण होता है और चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होता है और ज्ञान सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होता है-इस प्रकार विचार करने पर सम्यक्त्व के सारपना हुआ इसलिए पहले तो सम्यक्त्व सार है और पीछे ज्ञान-चारित्र सार हैं। पहले ज्ञान से पदार्थों को जानते हैं इसलिए पहले ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व के बिना उसका भी सारपना नहीं है-ऐसा जानना ।।३१।। FO उत्थानिका आगे इस ही अर्थ को द ढ़ करते हैं :णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। चोक्कं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो।। ३२।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान हो संयुक्त तप, सम्यक्त्व से। इन चारों के ही योग से है, सिद्ध पद संदेह ना ।।३२ ।। अर्थ ज्ञान और दर्शन के होने पर सम्यक्त्व सहित तप से और चारित्र से-इन चारों के समायोग होने से जीव सिद्ध हुए हैं-इससे संदेह नहीं है। 崇崇崇勇崇勇兼崇明藥業業%崇勇崇勇崇勇兼崇明藥業事業 崇崇明藥業崇明藥業| 業業野紫野野野野
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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