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________________ अष्ट पाहुड़ स्वामी स्वामी विरचित N ationalist आचार्य कुन्दकुन्द TOVAVALYAN SANAMANAISA CAMWAMI जीवादि के श्रद्धान को, व्यवहार समकित जिन कहा। निश्चय से जो निज आत्मश्रद्धा, वही समकित होय है।।२०।। अर्थ जिनभगवान ने जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है तथा निश्चय से अपनी आत्मा ही का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है। भावार्थ तत्त्वार्थ का श्रद्धान वह तो व्यवहार से सम्यक्त्व है तथा अपने आत्मस्वरूप का अनुभव करके उसकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि एवं आचरण सो निश्चय से सम्यक्त्व है। सो यह सम्यक्त्व आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है, आत्मा ही का परिणाम है तथा परिणाम है सो आत्मा ही है-इस प्रकार सम्यक्त्व और आत्मा एक ही वस्तु है ऐसा निश्चयनय का आशय जानना।।२०।। TO उत्थानिका " 業听听听听听听听听听听听听听听听听听業 崇先养养添馬添馬禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁% आगे कहते हैं कि 'यह सम्यदर्शन है सो सब गुणों में सार है, इसे धारण करो' : एवं जिणपण्णत्तं दसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ।। २१।।। जो मोक्ष की सीढ़ी प्रथम, गुण रत्नत्रय में सार है। जिनवर कथित दर्शन रतन वह, भाव से धारो उसे ।।२१।। अर्थ ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देव के द्वारा कहा हुआ जो दर्शन है सो गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चारित्र-इन तीन रत्नों में सार है, उत्तम है तथा मोक्ष मंदिर में चढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी है सो आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवों ! तुम इसको अन्तरंग भाव से धारण करो, बाह्य क्रियादि से धारण करना तो परमार्थ नहीं, अंतरंग की रुचि से धारण करना मोक्ष का कारण होता है।।२१।। 崇明崇明藥業業助業 《戀戀戀男崇崇明崇明崇明 my
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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