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________________ 卐卐業卐業卐業卐業卐業卐業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित ज्यों गर्भग ह वायु की, बाधा रहित दीपक जले। त्यों राग रूपी पवन विरहित, ध्यान दीपक प्रज्ज्वले । । १२३ । । अर्थ जैसे दीपक है वह 'गर्भग ह' अर्थात् जहाँ पवन का संचार नहीं - ऐसा जो मध्य का घर उसमें पवन की बाधा से रहित निश्चल हुआ प्रज्ज्वलित होता है अर्थात् प्रकाश करता है वैसे ही अन्तरंग मन में राग रूपी पवन से रहित ध्यान रूपी दीपक भी प्रज्ज्वलित हुआ, एकाग्र होकर ठहरता है और आत्मरूप को प्रकाशित करता है । भावार्थ पूर्व में कहा था कि जो इन्द्रिय सुख से व्याकुल हैं उनके शुभ ध्यान नहीं होता है, उसका यह दीपक का द ष्टान्त है। जहाँ इन्द्रियों के सुख में जो राग वह ही हुई पवन सो विद्यमान है उनके ध्यान रूपी दीपक कैसे निर्बाध उद्योत करे अर्थात् नहीं करता और जिनके यह राग रूपी पवन बाधा नहीं करता है उनके ध्यान रूपी दीपक निश्चल ठहरता है ।। १२३ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'ध्यान में परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्मा का स्वरूप है उस स्वरूप रूप तथा उस स्वरूप के आराधने में नायक अर्थात् प्रधान पंच परमेष्ठी हैं उनका ध्यान करना' - यह उपदेश करते हैं - झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरण लोयपरियरिए । णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे ध्या पंच गुरु जो लोक उत्तम, शरण, मंगल रूप हैं। आराधना नायक व सुर-नर- खचर पूजित वीर हैं । । १२४ ।। 卐 वीरे।। १२४।। अर्थ हे मुनि ! तू ‘पंचगुरु' अर्थात् पंच परमेष्ठी हैं उनका ध्यान कर । यहाँ 'अपि' शब्द ५-१२५ 專業 ※縢糕糕糕糕糕糕糕糕縢業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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