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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि बाह्य उत्तर गुणों की प्रव त्ति भी भाव शुद्ध करके करना :
बाहिरसयणत्तावण तरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि। पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो।। ११३।। बहिःशयन आतापन, तरूमूलादि उत्तरगुणों को। तू पाल भावविशुद्धि से, पूजादि लाभ न चाहकर ।।११३ ।।
अर्थ हे मुनिवर ! तू भाव से विशुद्ध होते हुए अर्थात् पूजा-लाभादि को नहीं चाहते हुए बाह्म शयन, आतापन एवं व क्षमूल योग का धारण इत्यादि जो उत्तर गुण हैं उनका पालन कर।
भावार्थ शीतकाल में तो बाहर खुले प्रदेश में सोना-बैठना, ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सन्मुख आतापन योग धारण करना और वर्षाकाल में वक्ष के मूल में योग धारण करना अर्थात् जहाँ बूंद व क्ष पर पड़ें और पीछे एकत्रित होकर शरीर पर गिरें, इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा बहुत है-इनको आदि लेकर जो उत्तरगुण हैं उनका पालन भी भाव शुद्ध करके करना।
यदि भावशुद्धि के बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है इसलिए भाव शुद्ध करके करने का उपदेश है। ऐसा तो न जानना कि इनका बाह्य में करने का निषेध किया है, इनको भी करना और भाव भी शुद्ध करना-ऐसा आशय है और केवल पूजा-लाभादि एवं अपनी महतंता दिखाने के लिए ही करे तो कुछ भले फल की प्रप्ति नहीं है ||११३।।।
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टि0-1.समस्त व्यवहार को बाह्य में करने की प्रेरणा दी, किसी का भी निषेध नहीं किया परन्तु उन्हें भाव गुद्धिपूर्वक
करने को कहा। यह भी करना और भावद्ध करना'-इस प्रकार दोनों को करने की बात कही। उत्तरगुणों के पालने आदि का निषेध करेंगे तो व्यवहार के लोप का दूषण आएगा और इन्हें भावद्धि के बिना केवल पूजालाभादि व अपनी महंतता दिखाने के लिए जीव करेगा तो एक तो इनमें तत्काल बिगाड़ होगा और फल उनका कुछ है नहीं। इसी प्रकार गाथा 54 के भावार्थ में भी भाव सहित द्रव्यलिंग का-दोनों को ही धारने
का उपदे दिया है कि 'भाव सहित द्रव्यलिंग भये कर्म की निर्जरा नामा कार्य होय है।' 崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明