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aIDA अष्ट पाहुड़sta
स्वामी विरचित
o आचार्य कुन्दकुन्द
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दर्शन रतन से भ्रष्ट बहुविध, शास्त्र को गर जानता। आराधना से रहित हो, संसार में ही घूमता ।। ४ ।।
अर्थ __जो पुरुष सम्यक्त्व रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं और अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तो भी वे आराधना से रहित होते हुए इस संसार में ही भ्रमण करते हैं। 'तत्थेव' शब्द दो बार कहने से बहुत परिभ्रमण बताया है।
भावार्थ जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छंद एवं अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तो भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप रूप आराधना उनके नहीं होती है इससे वे कुमरण करके चतुर्गति रूप संसार में ही भ्रमण करते हैं, मोक्ष नहीं पाते हैं क्योंकि सम्यक्त्व के बिना ज्ञान को आराधना नाम से नहीं कहते।।४।।
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आगे कहते हैं कि 'जो तप भी करते हैं परन्तु सम्यक्त्व से रहित होते हैं उन्हें
स्वरूप का लाभ नहीं होता' :सम्मत्तविरहिया णं सुठु वि उग्गं तवं चरंताणं। ण लहंति बोहिलाहं अविवाससहस्सकोडीहिं।। ५।।।
सम्यक्त्व से विरहित रहे, पर उग्र तप को आचरे । नहिं पावे बोधि लाभ को, वर्षों हजार करोड़ में ।। ५ ।।
अर्थ जो पुरुष सम्यक्त्व से विरहित हैं वे सुष्ठु अर्थात भली प्रकार उग्र तप का आचरण करते हैं तो भी बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी अपना जो स्वरूप है उसके लाभ को नहीं पाते हैं। यदि वे हजार करोड़ वर्ष तक तप करें तो
भी उन्हें स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ गाथा में 'ण' ऐसा शब्द दो स्थान पर 崇崇明崇崇崇明崇%8騰崇崇明需攜帶業