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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
भावार्थ
संसार में किसी भी प्रकार से त प्ति नहीं है इसलिए जैसे अपने संसार का अभाव हो वैसा चिन्तवन करना अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्र का सेवन करना - ऐसा उपदेश है ।। २३ ।।
उत्थानिका
आगे फिर कहते हैं
-
गहिउज्झियाइं मुणिवर ! कलेवराई तुमे ताणं णत्थि पमाणं अनंतभवसायरे हे धीर ! हे मुनिवर ! ग्रहे-छोड़े शरीर अनेक जो । उनका नहीं परिमाण है, इस अनंत भवसागर विषै ।। २४ ।।
अर्थ
हे मुनिवर ! हे धीर' ! तूने इस अनन्त भवसागर में जो अनेक 'कलेवर' अर्थात् शरीर ग्रहण किए और छोड़े उनका परिमाण नहीं है ।
भावार्थ
उत्थानिका 99
अणेयाइं ।
धीर ! ।। २४ ।।
हे मुनिप्रधान ! तू इस शरीर से कुछ स्नेह करना चाहता है सो इस संसार में तूने इतने शरीर ग्रहण किए और छोड़े कि उनका कुछ भी परिमाण नहीं किया जा सकता अर्थात् अनंत ग्रहण किए और छोड़े इसलिए तू अब शुद्धात्मा की भावना को भा और शरीर से स्नेह का विचार मत कर यह उपदेश है ।।२४।।
आगे कहते हैं कि 'यदि तू पर्याय को स्थिर जानता है तो वह स्थिर नहीं है, आयु कर्म के आधीन है सो आयु निम्न अनेक प्रकारों से क्षीण हो जाती है :
टि0 - 1. 'श्रु0 टी0' में 'धीर' शब्द की व्युत्पत्ति ऐसे की है- 'ध्येयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति
धीर।' अर्थ-'जो ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य पदार्थ की ओर बुद्धि को प्रेरित करे उसे धीर
कहते हैं । '
५-३४ 專業
卐業卐業專業
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