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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
भवसायरे अणंते छिण्णुज्झिय केस णहर णालट्ठी ।
पुंजइ जइ को वि जये ! हवदि य गिरिसमधिया रासी ।। २० ।। मुनि भवसमुद्र अनन्त छुटे, नख-नाल - अस्थि - केश जो ।
यदि कोई एकत्रित करे तो, गिरि अधिक वह राशि हो । । २० ।।
अर्थ
हे मुने! इस अनन्त संसार सागर में तूने जो जन्म लिए उनमें जितने केश, नख, नाल एवं अस्थि कटे वा छोड़े उनका यदि कोई पुज करे तो मेरु पर्वत से भी अधिक राशि हो जाए अर्थात् अनंत गुणी हो जाए ।। २० ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'हे आत्मन् ! तू जल एवं स्थल आदि सर्व स्थानों में बसा' :जलथल सिहि पवणंबर गिरि सरि दरि तरुवणाइं सव्वत्तो ।
वसिओसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ।। २१ । ।
जल थल अनल तरु अनिल अंबर, गिरिगुफा नदी वन में ही ।
सर्वत्र परवश हो बसा, त्रय लोक में चिरकाल तक । ।२१।।
अर्थ
हे जीव ! तू जल में, 'थल' अर्थात् भूमि में, 'शिखि' अर्थात् अग्नि में तथा पवन
में, 'अंबर' अर्थात् आकाश में, 'गिरि' अर्थात् पर्वत में, 'सरित्' अर्थात् नदी में, 'दरी' अर्थात् पर्वत की गुफा में, 'तरु' अर्थात् व क्षों में तथा वनों में और अधिक क्या कहें तीनों लोकों में सब ही स्थानों में बहुत काल तक 'अनात्मवश' अर्थात् पराधीन होते हुए बसा अर्थात् निवास किया।
भावार्थ
निज शुद्धात्मा की भावना के बिना कर्म के आधीन होकर तीन लोक में सर्वत्र
दुःख सहित वास किया । । २१ ।।
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