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________________ *糕糕糕糕糕糕糕糕糕 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ उत्थानिका आगे फिर कहते हैं : उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंक्कारवज्जिया रुक्खा । मयरायदो सरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५२ ।। उपशमक्षमादमयुक्त, तनसंस्कार बिन है, रुक्ष है। मद, राग-द्वेष से रहितता हो, प्रव्रज्या ऐसी कही । । ५२ ।। अर्थ स्वामी विरचित पुन: कैसी है प्रव्रज्या - 'उपशमक्षमादमयुक्ता' अर्थात् उपशम तो मोह कर्म के उदय का अभाव रूप शांत परिणाम, क्षमा क्रोध का अभाव रूप उत्तम क्षमा और दम इन्द्रियों को विषयों में नहीं प्रवर्ताना – इन भावों से युक्त है । और कैसी है—'शरीरसंस्कारवर्जिता' अर्थात् स्नानादि के द्वारा शरीर के संवारने से रहित है। और कैसी है - रुक्ष है, शरीर के तेलादि का मर्दन जिसमें नहीं है । और कैसी है-मद, राग व द्वेष से रहित है। ऐसी प्रव्रज्या कही है। भावार्थ अन्यमत के वेषी क्रोधादि रूप परिणमते हैं, शरीर को संवारकर सुन्दर रखते हैं, इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं और अपने को दीक्षा सहित मानते हैं सो वे तो ग हस्थ के समान हैं, यति कहलाकर उल्टे मिथ्यात्व को दढ़ करते हैं। जैन दीक्षा जैसी कही है सो सत्यार्थ है और जो इसको अंगीकार करते हैं वे ही सच्चे यति हैं ।। ५२ ।। | उत्थानिका OR आगे फिर कहते हैं : पणट्टकम्मट्ठ विवरीयमूढभावा सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा 卐糕糕糕糕 ४-५१ णट्टमिच्छत्ता । भणिया । । ५३ ।। 專業卐米米米米米米米米米米米 專業生
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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