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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
o आचार्य कुन्दकुन्द
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वंदन के योग्य नहीं है। जिसके दर्शन नहीं है उसके धर्म भी नहीं है क्योंकि मूल के बिना व क्ष के स्कंध, शाखा, पुष्प व फलादि कहाँ से होंगे इसलिए ऐसा उपदेश है कि जिसके धर्म नहीं है उससे धर्म की प्राप्ति नहीं है तो फिर उसकी धर्म के लिए क्यों वंदना की जाए-ऐसा जानना।'
भावार्थ अब यहाँ धर्म का तथा दर्शन का स्वरूप जानना चाहिए सो स्वरूप तो संक्षेप से ग्रंथकार ही आगे कहेंगे तथापि कुछ अन्य ग्रंथों के अनुसार यहाँ भी लिखते हैं :
धर्म और दर्शन शब्द का अर्थ एवं उनकी व्याख्या-इनमें 'धर्म' इस शब्द का अर्थ है कि 'जो आत्मा का संसार से उद्धार करके उसे सुख स्थान में स्थापित करे उसे धर्म कहते हैं' तथा 'दर्शन' नाम देखने का है सो ऐसे धर्म की मूर्ति देखने में आवे वह दर्शन है पर प्रसिद्धि में जिसमें धर्म का ग्रहण हो ऐसे मत को दर्शन नाम से कहते हैं। सो लोक में धर्म की तथा दर्शन की सामान्य रूप से मान्यता तो सबके है परन्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूप का तो जानना होता नहीं और छद्मस्थ (ज्ञानावरण कर्म के छद्म यानि पर्दे में स्थित अर्थात् अल्पज्ञ) प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके, उनका अन्यथा स्वरूप स्थापित करके उसकी प्रव त्ति करते हैं पर जिनमत सर्वज्ञ की परम्परा से प्रवर्तमान है सो इसमें यथार्थ स्वरूप का प्ररूपण है।
धर्म का प्ररूपण-धर्म निश्चय और व्यवहार ऐसे दो प्रकार से साधा है और उसकी चार प्रकार से प्ररूपणा है-(१) वस्तुस्वभाव, (२) उत्तम क्षमादि रूप दस प्रकार, (३) सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप एवं (४) जीवों की रक्षा रूप-ऐसे चार
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प्रकार हैं।
निश्चयनय से धर्म की प्ररूपणा-इनमें निश्चयनय से साधिये तब तो सब निम्न रूप से एक ही प्रकार है :
टि-1. इस सम्बन्धित गाथा - धम्मो वत्थुसहावो, उत्तमखम्मादि दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवादीरक्खणं धम्मो।।
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