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1. गाथा विवरण क्रमांक
अनुक्रम
विषय
१. मंगलाचरणपूर्वक ग्रंथ को रचने की प्रतिज्ञा
२. धर्म दर्शनमूलक है सो दर्शनहीन की वंदना नहीं करना
३. दर्शन से भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट ह
४. ज्ञान से भी दर्शन अधिक ह
५. दर्शन रहित उग्र तप से भी बोधि का लाभ नहीं होता ६. सम्यक्त्व सहित ज्ञान, दर्शन, बल एवं वीर्य से वर्द्धमान शीघ्र ही केवलज्ञानी होते हैं
७. सम्यक्त्व रूपी जलप्रवाह से कर्म रज का नाश होता है 8. दर्शनादि तीनों से भ्रष्ट भ्रष्टों में विशेष भ्रष्ट हैं व अन्य जन को भी नाशकारक हैं
9. धर्मशील पुरुषों को भ्रष्टपना देने वाले पुरुषों की भ्रष्टता १०. दर्शनभ्रष्ट सो मूलविनष्ट हैं, वे सीझते नहीं
११. जिनदर्शन ही मोक्षमार्ग का मूल है।
१२. दर्शन से भ्रष्ट व अन्य दर्शनधारियों से विनय के इच्छुक लूले- गूंगे होते हैं
१३. दर्शनभ्रष्ट जीवों की पाद बन्दना करने वालों को बोधि की प्राप्ति नहीं होती
१४. परिग्रह त्यागी व संयमी ही जिनदर्शन की मूर्ति होता है। १५-१६. सम्यग्दर्शन से ही श्रेय व अश्रेय का ज्ञान और उस ज्ञान से निर्वाण की प्राप्ति
१७. ऐसे सम्यक्त्व की जिनवचन से ही प्राप्ति होती है अतः
जिनवचन सर्व दुःखों के क्षयकारी हैं
१४. दर्शन (जिनमत) में तीन ही लिंग होते हैं, चौथा नहीं
११. ऐसे बाह्य लिंग वाले सम्यग्द ष्टि का अन्तरंग श्रद्धान ऐसा
होता है
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