SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहाँ बताया गया शारीरिक इन्द्रियजन्य सुख वह वास्तविक सुख नहीं, परंतु मात्र सुखाभासरूप ही है अर्थात् वह सुख, दु:खपूर्वक ही होता है अर्थात् वह सुख, इन्द्रियों की आकुलतारूप दु:ख को/वेग को शांत करने के लिए ही सेवन किया जाता है, तथापि वह अग्नि में ईंधनरूप होता है अर्थात् वह बार-बार इसकी इच्छारूप दुःख जगाने का ही काम करता है और वह भोग भोगते हुए जो नये पाप बँधते हैं, वे नये दु:ख का कारण बनते हैं अर्थात् वैसा सुख दु:खपूर्वक और दुःखरूप फलसहित ही होता है। दूसरा, वह क्षणिक है, क्योंकि वह सुख अमुक काल पश्चात् नियम से जानेवाला है, अर्थात् जीव को ऐसा सुख मात्र त्रसपर्याय में ही मिलने योग्य है। त्रसपर्याय बहुत अल्पकाल के लिए होती है, पश्चात् वह जीव नियम से एकेन्द्रिय में जाता है कि जहाँ अनंत काल तक अनंत दुःख भोगने पड़ते हैं और एकेन्द्रिय में से बाहर निकलना भी भगवान ने चिंतामणिरत्न की प्राप्तितुल्य दुर्लभ बताया है। इसीलिए भगवान ने यह मनुष्य जन्म, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, आर्यदेश, उच्चकुल, धर्म की प्राप्ति, धर्म की देशना, धर्म की श्रद्धा, धर्मरूप परिणमन इत्यादि को एक-एक से अधिक - अधिक दुर्लभ बताया है। इसलिए यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्यजन्म मात्र शारीरिक इन्द्रियजन्य सुख और उसकी प्राप्ति के लिए खर्च करने योग्य नहीं है, परंतु इसका एक भी पल व्यर्थ न गँवाकर एकमात्र सुखी होने की चाबी ६
SR No.009477
Book TitleSukhi hone ki Chabi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailesh Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy