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प्रतिष्ठा नाम्नलि
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भूतकाल में हुए २४ तीर्थंकरों के लिए अर्घ्य
(पद्धरि ) भवि लोक शरण निर्वाणदेव, शिव सुखदाता सब देव देव । पूजूं शिवकारण मन लगाय, जासें भवसागर पार जाय ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्री निर्वाणजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १८ ।। तज राग-द्वेष ममता विहाय, पूजक जन सुख अनुपम लहाय । गुणसागर सागर जिन लखाय, पूजूँ मन-वच अर काय नाय ।। २ ।। ॐ ह्रीं श्री सागरजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १९ ।। नय अर प्रमाण से तत्त्व पाय, निज जीव तत्त्व निश्चय कराय । साधो तप केवलज्ञान दाय, ते साधु महा वन्द सुभाय || ३ || ॐ ह्रीं श्री महासाधुजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २० ।। दीपक विशाल निज ज्ञान पाय, त्रैलोक लखे बिन श्रम उपाय । विमलप्रभ निर्मलता कराय, जो पूजें जिनको अर्थ लाव ||४|| ॐ ह्रीं श्री विमलप्रभजिनाव अच्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२१|| भवि शरण गेह मन शुद्धिकार, गावँ धुति मुनिगण यश प्रचार । शुद्धाभदेव पूजूं विचार, पाऊँ आतम गुण मोक्ष द्वार ||५||
ॐ ह्रीं श्री शुद्धाभदेवजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २२ ।। अंतर बाहर लक्ष्मी अधीश, इन्द्रादिक सेवत नाय शीस श्रीधर चरणा श्री शिव कराय, आश्रयकर्ता भवदधि तराय || ६ || ॐ ह्रीं श्री श्रीधरजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २३ ।। जो भक्ति करें मन-वचन-काय, दाता शिवलक्ष्मी के जिनाय ।
श्रीदत्त चरण पूजूँ महान, भवभय छूटे लहूँ अमल ज्ञान ।।७।। ॐ ह्रीं श्री श्रीदत्तजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा || २४|| भामण्डल छवि वरणी न जाय, जहँ जीव लखेँ भव सप्त आय । मन शुद्ध करें सम्यक्तपाय, सिद्धाभ भजे भवभय नसाय ||८|| ॐ ह्रीं श्री सिद्धाभजिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। २५ ।। u
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