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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
जागी प्रतीति अब स्वयं सिद्ध, भव भ्रमण भ्रान्ति सब दूर हुई। असंयुक्त निर्बन्ध सुनिर्मल, धर्म परिणति प्रकट हुई। अस्थिरताजन्य विकार मिटें, मैं शरण आपकी हूँ आया। बहुमानभावमय धूप धरूँ, निष्कर्म तत्त्व मैंने पाया।। ___ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। है परिपूर्ण सहज ही आतम, कमी नहीं कुछ दिखलावे । गुण अनन्त सम्पन्न प्रभु, जिसकी दृष्टि में आ जावे ।। होय अयाची लक्ष्मीपति, फिर वांछा ही नहीं उपजावे । स्वात्मोपलब्धिमय मुक्तिदशा का सत्पुरुषार्थ सु प्रगटावे ।। अफलदृष्टि प्रगटी प्रभुवर, बहुमान आपका आया है। निष्काम भावमय पूजन का, विभु परमभाव फल पाया है।।
ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । निज अविचल अनर्घ्य पद पाया, सहज प्रमोद हुआ भारी। ले भावार्घ्य अर्चना करता, निज अनर्घ्य वैभव धारी ।। चक्री इन्द्रादिक के पद भी, नहिं आकर्षित कर सकते। अखिल विश्य के रम्य भोग भी, मोह नहीं उपजा सकते। निजानन्द में तृप्तिमय ही, होवे काल अनन्त प्रभो। ध्रुव अनुपम शिव पदवी प्रगटे, निश्चय ही भगवन्त अहो।। ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (छन्द ह्र चामर, तर्ज ह मैं हूँ पूर्ण ज्ञायक...) प्रभो आपने एक ज्ञायक बताया।
तिहँ लोक में नाथ अनुपम जताया।।टेक।। यही रूप मेरा मुझे आज भाया।
महानन्द मैंने स्वयं में ही पाया।