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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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-आप नहीं देते कुछ भी पर, भक्त आप से ले लेते । - दर्शन कर उपदेश श्रवण कर, तत्त्वज्ञान को पा लेते ।। भेदज्ञान अरु स्वानुभूति कर, शिवपथ में लग जाते हैं। अहो! आप सम स्वाश्रय द्वारा, निज प्रभुता प्रगटाते हैं ।। जब तक मुक्ति नहीं होती, प्रभु पुण्य सातिशय होने से । चक्री इन्द्रादिक के वैभव, मिलें अन्न-संग के तुष से 11 पर उनकों चाहे नहिं ज्ञानी, मिलें किन्तु आसक्त न हों । निजानन्द अमृत रस पीते, विष फल चाहे कौन अहो ? भाते नित वैराग्य भावना, क्षण में छोड़ चले जाते । मुनि दीक्षा ले परम तपस्वी, निज में ही रमते जाते ।। घोर परीषह उपसर्गों में मन सुमेरु नहिं कम्पित हो । क्षण-क्षण आनंद रस वृद्धिंगत, क्षपकश्रेणि आरोहण हो ।। शुक्लध्यान बल घाति विनष्टे, अर्हत् दशा प्रगट होती । अल्पकाल में सर्व कर्ममल - वर्जित मुक्ति सहज होती ।। परमानन्दमय दर्श आपका, मंगल उत्तम शरण ललाम । निरावरण निर्लेप परम प्रभु, सम्यक् भावे सहज प्रणाम ।। ज्ञान माँहि स्थापन कीना, स्व-सन्मुख होकर अभिराम । स्वयं सिद्ध सर्वज्ञ स्वभावी, प्रत्यक्ष निहारूँ आतमराम ।। (दोहा)
प्रभु नंदन मैं आपका, हूँ प्रभुता सम्पन्न । अल्पकाल में आपके, तिष्ठुंगा आसन्न ।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
दर्शन - ज्ञानस्वभावमय, सुख अनंत की खान ।
जाके आश्रय प्रगटता, अविचल पद निर्वान ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि )
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