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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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जयमाला
( दोहा )
चिन्मय हो, चिद्रूप प्रभु ! ज्ञाता मात्र चिदेश । शोध-प्रबंध चिदात्म के, स्रष्टा तुम ही एक ।। ( मानव ) जगाया तुमने कितनी बार! हुआ नहिं चिर-निद्रा का अन्त । मदिर सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं सन्त ।। घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान । निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ।। ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम ।
अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ।। किन्तु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनन्त । अरे! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी बसंत ।। नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति । क्षम्य कैसे हों ये अपराध ? प्रकृति की यही सनातन रीति ।। अतः जड़-कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश । और फिर नरक-निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश ! घटा घन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश । नरक में पारद - सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच ॥ करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव! अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव ! दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान । शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान ।। "अरे! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव । शुभाशुभ की जड़ता तो दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ।। अहो 'चित्' परम अकर्त्तानाथ, अरे! वह निष्क्रिय तत्त्व विशेष । अपरिमित अक्षय वैभव - कोष”, सभी ज्ञानी का यह परिवेश 1 կ
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