________________
202
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
LL मोह भाव की ममता टारे, पर परिणति खोते। ।। करे मोख का यतन निराम्रव ज्ञानी जन होते ।।१७ ।।
संवर भावना ज्यों मोरी में डाट लगावे, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोके संवर क्यों नहिं मन लाता ।। पंच महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मन को। दश विध धर्म परीषह बाईस, बारह भावन को ।।१८ ।। यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते। सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते ।। भाव शुभाशुभ रहित शुद्धि, भावन संवर पावै। डाट लगत यह नाव पड़ी, मँझधार पार जावै ।।१९।।
निर्जरा भावना ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पड़े भारी। संवर रोके कर्म निर्जरा, है सोखन हारी ।। उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली। दूजी है अविपाक पकावें, पाल विर्षे माली ।।२०।। पहली सबके होय नहीं कुछ, सरे काम तेरा। दूजी करे जु उद्यम करके, मिटे जगत फेरा ।। संवर सहित करो तप प्रानी, मिले मुक्ति रानी। इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ।।२१।।
लोक भावना लोक-अलोक अकाश माँहि थिर, निराधार जानो। पुरुष रूप कर कटी भये षट् द्रव्यन सों मानो।। इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीव रु पुद्गल नाचे यामैं, कर्म उपाधी है।