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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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मन्त्र यन्त्र सेना धन सम्पत्ति, राजपाट छूटे। वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटे ॥ ६ ॥ चक्र रतन हलधर-सा भाई, काम नहीं आया । एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया ।। देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई । भ्रम में फिरे भटकता चेतन, यूँ ही उमर खोई ।। ७ ।।
संसार भावना
जनम-मरण अरु जरा रोग से, सदा दुःखी रहता । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव, परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशु गति, वध बन्धन सहना । राग उदय से दुःख सुरगति में, कहाँ सुखी रहना ।।८ ।। भोगि पुण्य फल हो इक इन्द्री, क्या इसमें लाली । कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली ।। मानुष जन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा । पंचम गति सुख मिले, शुभाशुभ का मेटो लेखा ।। ९ ।। एकत्व भावना
जन्मे मरे अकेला चेतन, सुख-दुःख का भोगी । और किसी का क्या ? इक दिन यह देह जुदी होगी ।। कमला चलत न पेंड, जाय मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुख को रोवे, पिता पुत्र दारा ।। १० ।। ज्यों मेले में पन्थी जन मिलि, नेह फिरे धरते। ज्यों तरुवर पैं रैन बसेरा, पन्छी आ करते।
कोस कोई दो कोस कोई उड़, फिर थकथक हारे। जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारे ।। ११५