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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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सर्वज्ञ - शासन जयवंत वर्ते !
सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते! निर्ग्रन्थ शासन जयवंत वर्ते । यही भाव अविच्छिन्न रहता है मन में, सर्वज्ञ-शासन जयवंत वर्ते ।।
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| निशंक निर्भय रहें हम सदा ही, अरे स्वप्न में भी न कुछ कामना हो । निरपेक्ष रहकर करें साधना नित, कभी ग्लानि भय या अनुत्साह ना हो ।। बातों में आवें न जग की कदापि, चमत्कार लखकर नहीं मूढ़ होवें । | अरे पर की निंदा, प्रशंसा स्वयं की, करके समय शक्ति बुद्धि न खोवें।। | चलित को लगावें सहज मुक्ति पथ में, व्यवहार सबसे सहज प्रेममय हो । |दुर्भाव मन में भी आवे कभी ना, निर्दोष सम्यक्त्व जयवंत वर्ते ।। सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते...
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| अभ्यास हो तत्त्व का ही निरन्तर, संशय विपर्यय अरे दूर भागे । जिनागम पढ़ें और पढ़ावें सभी को, सदा ज्ञान दीपक सुजलता हो आगे ।। | जिन-आज्ञा हो शीश पर नित हमारे, समाधान हो ज्ञानमय सुखकारी । गुरुवर का गौरव सदा हो हृदय में, बहे ज्ञानधारा सुआनंदकारी ।। वस्तु स्वभावमयी धर्म सुखमय, प्रकाशे जगत में अनेकांत सम्यक् । ऊँचा रहे ध्वज सदा स्याद्वादी, निर्दोष सद्ज्ञान जयवंत वर्ते ।। सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते...
| अहिंसामयी हो प्रवृत्ति सहज ही, जीवन का आधार हो सत्य सुखमय । अचौर्य धारें पर प्रीति त्यागें, परमशील वर्ते रहें सहज निर्भय ।। | महाक्लेशकारी है आरंभ परिग्रह, उसे छोड़ लग जायें निज-साधना में । धुल जायें सब मैल समता की धारा से, बढ़ते ही जायें सु आराधना में ।। होवें जितेन्द्रिय परम तृप्त निज में, एकाग्रता हो परम मग्नता हो । | साक्षात् साधन मुक्ति का सुखमय, निर्दोष चारित जयवंत वर्ते ।। सर्वज्ञ शासन जयवंत व '
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