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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
समता षोडसी समता रस का पान करो, अनुभव रस का पान करो। शान्त रहो शान्त रहो, सहज सदा ही शान्त रहो ।।टेक ।। नहीं अशान्ति का कुछ कारण, ज्ञान दृष्टि से देखे अहो। क्यों कर लक्ष करे रे मूरख, तेरे से सब भिन्न अहो ।।१।। देह भिन्न है कर्म भिन्न हैं, उदय आदि भी भिन्न अहो। नहीं अधीन हैं तेरे कोई, सब स्वाधीन परिणमित हो ।।२।। पर नहीं तुझसे कहता कुछ भी, सुखदुख का कारण नहीं हो। करके मूढ कल्पना मिथ्या, तू ही व्यर्थ आकुलित हो ।।३।। इष्ट अनिष्ट न कोई जग में, मात्र ज्ञान के ज्ञेय अहो। हो निरपेक्ष करो निज अनुभव, बाधक तुमको कोई न हो ।।४।। तुम स्वभाव से ही आनंदमय, पर से सुख तो लेश न हो। झूठी आशा तृष्णा छोड़ो, जिन वचनों में चित्त धरो ।।५।। पर द्रव्यों का दोष न देखो, क्रोध अग्नि में नहीं जलो। नहीं चाहो अनुरूप प्रवर्तन, भेद ज्ञान ध्रुव दृष्टि धरो ।।६।। जो होता है वह होने दो, होनी को स्वीकार करो। कर्तापन का भाव न लाओ, निज हित का पुरुषार्थ करो ।।७।। दया पहले अपने पर, आराधन से नहीं चिगो। कुछ विकल्प यदि आवे तो भी, सम्बोधन समतामय हो ।।८।। यदि माने तो सहज योग्यता, अहंकार का भाव न हो। नहीं माने भवितव्य विचारो, जिससे किंचित् खेद न हो।।९।। हीनभाव जीवों के लखकर, ग्लानिभाव नहीं मन में हो। कर्मोदय की अति विचित्रता, समझो स्थितिकरण करो ।।१०।। अरे कलुषता पाप बंध का, कारण लखकर त्याग करो। आलस छोड़ो बनो उद्यमी, पर सहाय की चाह न हो ।।११