________________
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
173
ज्ञान ही है सार जग में, शेष सब निस्सार है। ज्ञान से च्युत परिणमन का नाम ही संसार है।। ज्ञानमय निजभाव को बस भूलना अपराध है। ज्ञान का सम्मान ही, संसिद्धि सम्यक् राध है।।७।। अज्ञान से ही बंध, सम्यग्ज्ञान से ही मुक्ति है। ज्ञानमय संसाधना, दुख नाशने की युक्ति है।। जो विराधक ज्ञान का, सो डूबता मंझधार है। ज्ञान का आश्रय करे, सो होय भव से पार है।।८।। यों जान महिमाज्ञान की, निजज्ञान को स्वीकार कर। ज्ञान के अतिरिक्त सब, परभाव का परिहार कर ।। निजभाव से ही ज्ञानमय हो, परम-आनन्दित रहो। होय तन्मय ज्ञान में, अब शीघ्र शिव-पदवी धरो।।९।।
सान्त्वनाष्टक
शान्त चित्त हो निर्विकल्प हो, आत्मन् निज में तृप्त रहो। व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पियो ।।टेक।। स्वयं स्वयं में सर्व वस्तुएँ, सदा परिणमित होती हैं। इष्ट-अनिष्ट न कोई जग में, व्यर्थ कल्पना झूठी है।। धीर-वीर हो मोहभाव तज, आतम-अनुभव किया करो।।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ...... ।।१।। देखो प्रभु के ज्ञान माहिं, सब लोकालोक झलकता है। फिर भी सहज मग्न अपने में, लेश नहीं आकुलता है ।। सच्चे भक्त बनो प्रभुवर के ही पथ का अनुसरण करो ।।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ......॥२५