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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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द्रव्य गुण पर्यय बल कथत है, लाख सत्तर पद यह धरत है। पूर्व है अनुवाद सु वीर्य का, जनँ पाठक यति पद धारका ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री वीर्यानुवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५९।। नास्ति अस्ति प्रवाद सुअंग है, साठ लख मध्यम पद संग है। सप्तभंग कथत जिनमार्ग कर, जगँ पाठक मोह निवारकर ।।१५।। ॐ ह्रीं श्री अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६०॥ ज्ञान आठ सुभेद प्रकाशता, एक कम कोटी पद धारता। सतत ज्ञानप्रवाद विचारता, जगँ पाठक संशय टारता ।।१६।। ॐ ह्रीं श्री आत्मज्ञानप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६१।। कथत सत्य-असत्य सुभाव को, कोटि अरु पद धारी पूर्व को। पढत सत्यप्रवाद जिनागमा, जगूं पाठक ज्ञाता आगमा ।।१७।। ॐ ह्रीं श्री सत्यप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६२।। सकल जीव स्वरूप विचारता, कोटि पद छब्बीस सुधारता। पढत सत्यप्रवाद जिनागमा, जगूं पाठक ज्ञाता आगमा ।।१८।। ॐ ह्रीं श्री आत्मप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६३।। कर्मबंध विधान बखानता, कोटि पद अस्सी लाख धारता। पठत कर्म प्रवाद सुध्यान से, जनँ पाठक शुद्ध विधान से ।।१९।। ॐ ह्रीं श्री कर्मप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६४।। नय प्रमाण सुन्यास विचारता, लाख पद चौरासी धारता । पूर्व प्रत्याहार जु नाम है, जजू पाठक रमताराम है।।२०।। ॐ ह्रीं श्री प्रत्याहारपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६५।। मंत्र विद्याविधि को साधता, लक्ष दशकोटि पद धारता । पूर्व है अनुवाद सुज्ञान का, जजू पाठक सन्मतिदायका ।।२१।। ॐ ह्रीं श्री विद्यानुवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१६६।