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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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पच्चीस गुणयुक्त उपाध्याय परमेष्ठी के लिए अर्घ्य
(द्रुतविलम्बित) प्रथम अङ्ग कथत आचार को, सहस्र अष्टादश पद धारतो। पढत साधु सु अन्य पढावते, जगँ पाठक को अति चाव से ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अष्टादशसहस्रपदसंयुक्ताचाराङ्गधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४६।। द्वितीय सूत्रकृतांग विचारते, स्व पर तत्त्व सु निश्चय लावते । पद छत्तीस हजार विशाल हैं, जजूं पाठक शिष्य दयालु हैं ।।२।। ॐ ह्रीं श्री षट्त्रिंशत्सहस्रपदसंयुक्तसूत्रकृतांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४७।। तृतीय अङ्ग स्थान छः द्रव्य को, पद हजार बियालिस धारतो। एक द्वै त्रय भेद बखानता, जनँ पाठक तत्त्व पिछानता ।।३।। ॐ ह्रीं श्री द्विचत्वारिंशत्पदसंयुक्तस्थानांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽर्थ्य नि. स्वाहा ।।१४८।। द्रव्य क्षेत्र समय अर भाव से, साम्य झलकावे विस्तार से। लख सहस्र चौंसठ पद धारता, जā पाठक तत्त्व विचारता ।।४।। ॐ ह्रीं श्री एकलक्षषष्टिपदन्याससहस्रसमवायांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४९।।
प्रश्न साठ हजार बखानता, सहस अठविंशति पद धारता । द्विलख और विशद परकाशता, जगूं पाठक ध्यान सम्हारता ।।५।। ॐ ह्रीं श्री द्विलक्षाष्टाविंशतिसहस्रपदरंजितव्याख्याप्रज्ञप्त्यंगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५०॥ धर्मचर्चा प्रश्नोत्तर करे, पाँच लाख सहस छप्पन धरे। पद सु मध्यम ज्ञान बढावता, जजू पाठक आतम ध्यावता ।।६।। ॐ ह्रीं श्री पंचलक्षषट्पंचाशत्सहस्रपदसङ्गतज्ञातृधर्मकथांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योअयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५।।