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न परवस्तु मेरी न संबंध मेरा,
अलख गुण निरञ्जन शमी आत्म मेरा । यही भाव अनुपम प्रकाशे सुध्यानं,
जूँ मैं गुरु को लहूँ शुद्ध ज्ञानं ।। २६ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१३५ ।।
परम शील धारी निजाराम चारी,
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
न रंभा सु नारी करें मन विकारी ।
परम ब्रह्मचर्या चलत एक तानं,
जूँ मैं गुरु को सभी पापहानं ।। २७ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्ममहनीयाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३६ ।।
मनः गुप्तिधारी विकल्प प्रहारी,
परम शुद्ध उपयोग में नित विहारी । निजानन्द सेवी परम धाम बेवी,
जूँ मैं गुरु को धरम ध्यान टेवी ।। २८ ।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३७।।
वचन गुप्तिधारी महासौख्यकारी,
करें धर्म उपदेश संशय निवारी | सुधा सार पीते धरम ध्यान धारी,
जजूँ मैं गुरु को सदा निर्विकारी ।। २९ ।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१३८ ।।
अचल ध्यानधारी खड़ी मूर्ति प्यारी,
खुजावें मृगी अंग अपना सम्हारी । धरी काय गुप्ति निजानन्द धारी, मैं गुरु को समता प्रचारी ।। ३० ।। ह्रीं श्री कायगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३९- ।