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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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ऐसा ही प्रभु मैं भी...
ऐसा ही प्रभु मैं भी हूँ, ये प्रतिबिम्ब सु- मेरा है । भली-भांति मैंने पहचाना, ऐसा रूप सु-मेरा है । । टेक ॥। ज्ञान शरीरी अशरीरी प्रभु, सब कर्मों से न्यारा है । निष्क्रिय परमप्रभु ध्रुव ज्ञायक, अहो प्रत्यक्ष निहारा है ।। जैसे प्रभु सिद्धालय राजें, वही स्वरूप सु-मेरा है । भली-भांति मैंने पहचाना, ऐसा रूप सु-मेरा है ।। १ ।। रागादिक दोषों से न्यारा, पूर्ण ज्ञानमय राज रहा । असम्बद्ध सब परभावों से, चेतन-वैभव छाज रहा ।। विमूरति चिन्मूरति अनुपम, ज्ञायकभाव सु-मेरा है । भली-भांति मैंने पहचाना, ऐसा रूप सु- मेरा है ।।२।। दर्शन - ज्ञान - अनन्त विराजे, वीर्य अनन्त उछलता है । सुखसागर अनन्त लहरावे, ओर-छोर नहीं दिखता है ।। परमपारिणामिक अविकारी, ध्रुव स्वरूप ही मेरा है । भली-भांति मैंने पहचाना, ऐसा रूप सु- मेरा है ||३||
ध्रुव दृष्टि प्रगटी अब मेरे, ध्रुव में ही स्थिरता हो । ज्ञेयों में उपयोग न जावे, ज्ञायक में ही रमता हो ।। परम स्वच्छ स्थिर आनन्दमय, शुद्धस्वरूप ही मेरा है । भली-भांति मैंने पहचाना, ऐसा रूप सु-मेरा है ||४|| जिन - स्तवन
है यही भावना हे स्वामिन्, तुम सम ही अन्तदृष्टि हो । है यही कामना हे प्रभुवर, तुम सम ही अन्तर्वृत्ति हो । । टेक ॥।
तुमको पाकर संतुष्ट हुआ, निज शाश्वतपद का भान हुआ । पर तो पर ही है देह स्वांग, तुमको लख भेदविज्ञान हुआ ।। मैं ज्ञानानंद स्वरूप सहज, ज्ञानानन्दमय सृष्टि हो । १