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पञ्चास्तिकाय परिशीलन इच्छापूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप कार्य का वेदन करती है तथा तीसरी शुद्ध जीवराशि उसी चेतकभाव से विशुद्ध शुद्धात्मानुभूति की भावना द्वारा कर्मकलंक को नष्ट कर देने के कारण केवलज्ञान का अनुभव करती है। कविवर हीराचंदजी इसी भाव को पद्य में कहते हैं ह्र
(अडिल्ल) सरव करमफल-मगन सु थावरकाय है।
अवर करमफल-लगनि सुत्रस बहुभाय है ।। दस प्राननिकरि रहित सिवालय सिद्ध हैं।
ग्यानरूप अनुभवै सु चेतन रिद्ध है ।। सम्पूर्ण स्थावर कायजीव कर्मफल भोगने में ही मगन हैं। असंख्यात त्रस जीव कर्म चेतना के धारक हैं तथा दस प्राणों से रहित अनन्त सिद्ध जीव तथा अरहंत केवली मात्र ज्ञान चेतना को धारण करते हैं।
गुरुदेवश्री ने इस पर प्रवचन करते हुये विशेष बात यह कही है कि ह्र तीन प्रकार के जीव तीन प्रकार की चेतना को धारण करते हैं ह्र • अनंत एकेन्द्रिय जीव हर्ष-शोक को अर्थात् मुख्यरूप से कर्मफल
चेतना को धारण करते हैं। • असंख्यात त्रस जीव मुख्यता से राग-द्वेषरूप कर्मचेतना को धारण
करते हैं। • अनंत सिद्ध और अरहंत केवली मात्र ज्ञानचेतना को धारण करते हैं।
जीव जड़ की अवस्था नहीं कर सकता; क्योंकि राग के कारण जड़ की अवस्था नहीं होती। जड़ का होना जड़ में है और राग का होना आत्मा में है। पुद्गल अस्ति है और स्कंधरूप होना वह उसकी काय है। दान देने वाले ने शुभराग किया है; परन्तु रुपये-पैसे रूप पुद्गल में फेरफार करना लेन-देन की क्रिया करना ज्ञानी या अज्ञानी के अधिकार में नहीं है।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
अज्ञानी जीव कहता है कि अपने को इतनी अधिक प्रवृत्ति नहीं करना है और इसप्रकार का शुभभाव भी नहीं करना कि जिससे आत्मा की प्रवृत्ति बाह्य में बढ़ जाए।
उससे कहते हैं कि जब तू बाहर की पर्याय में कुछ कर ही नहीं सकता तो वहाँ से तू निवृत्ति ले, यह कहने का प्रश्न भी नहीं उठता। पुद्गल परमाणुओं का अस्तिकायरूप होना या नहीं होना, वह उनके स्वयं के आधीन है, तेरे आधीन नहीं। किसी के कारण किसी का अस्तित्व टिके अथवा बदले ह्र ऐसा नहीं होता। जिसकाल में जो संयोग होना है उस काल में वे संयोग ही होंगे। उनको लाना या हटाना किसी के अधिकार की बात नहीं है; और जो राग जिस काल में होना है वह राग उस काल में होता ही है। दृष्टि राग पर है या ज्ञानस्वभाव पर है ह्र उससे धर्म-अधर्म का माप है। यदि स्वभाव पर दृष्टि करके ज्ञान करे तो धर्मी है और जिसकी दृष्टि संयोग तथा राग पर है वह अधर्मी है।
अज्ञानी पर में फेरफार करना चाहता है ह यह पर में फेरफार करने की वृत्ति ही भ्रान्ति है। पर का परिणमन पर के कारण होता है तथा राग स्वयं के कारण एकसमय मात्र का होता है ह्र ऐसा ज्ञान करके उसको हेय समझकर, त्रिकाली शुद्धस्वभाव को उपादेय मानना जीव के अधिकार की बात है। इसप्रकार निमित्त और पर्याय की दृष्टि बदलकर त्रिकाली स्वभाव की रुचि करना ही धर्म है।"
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि ह सभी स्थावर काय के जीव कर्मफल चेतना को वेदते हैं, त्रस जीव कर्मचेतना सहित कर्मफलचेतना को वेदते हैं तथा प्राणों का अतिक्रमण करनेवाले सिद्ध एवं अरहंत जीव ज्ञानचेतना को वेदते हैं।
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३४, पृष्ठ १०५२, दिनांक ५-३-५२