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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
वहाँ नहीं है, अपितु उसका वैसा ही पर्याय स्वभाव है। वहाँ कर्मफल चेतना प्रधान है।
लट, चींटी, मनुष्य, देव, नारकी आदि जीवों में कर्तापने की प्रधानता है, कर्म तो निमित्तमात्र है; परन्तु अज्ञानी प्राणी पर के कर्तृत्व की मिथ्या भ्रान्ति करता है।
यदि ऐसा माना जाय कि जीव की पर्याय में राग-द्वेष, हर्ष- शोक हैं ही नहीं तो जीव का अस्तिकायपना ही उड़ जाता है। राग-द्वेष करें और हर्ष - शोक भोगें तो वे सब अपने में अपने कारण से ही होते हैं। ऐसा जीवास्तिकाय का ही पर्याय स्वरूप है ह्न इसप्रकार दृष्टि करके वे राग-द्वेष की पर्यायें आदरणीय नहीं हैं ह्र इसप्रकार उससे दृष्टि हटाकर अपने शुद्ध चैतन्य की दृष्टि करना ही धर्म है।"
यहाँ गुरुदेवश्री विशेष बात यह कहते हैं कि वस्तुतः 'पृथ्वीकाय आदि के स्थावर जीव अपने शरीर का, फावड़ा - शस्त्र - कुल्हाड़ी आदि संयोगों का अनुभव नहीं करते; क्योंकि वे जीव उक्त पर वस्तुओं का तो स्पर्श ही नहीं करते । शास्त्रों में स्थावर जीवों के छेदन-भेदन आदि दुःखों का जो कथन है, वह तो निमित्त की अपेक्षा से है। वस्तुतः तो वे अपने ज्ञानस्वभाव को चूककर पर में या पर के कारण सुख हैं ह्र ऐसी मिथ्या मान्यता के कारण हर्ष-विषाद का वेदन कर रहे हैं।
दूसरी त्रस जीवराशि ऐसी है कि वह पर के तथा राग के कर्तापनेरूप अभिमान सहित राग-द्वेष को भोगती है। उनके राग-द्वेष के कर्तृत्व की मुख्यता है। लट-चींटी, हाथी, मनुष्य, देव, नारकी आदि जीव स्वयं में राग करने रूप भाव करते हैं।
जीव में चेतना नामक त्रिकाली गुण है, उसकी पर्याय में या तो वह रहे या अजागृत रहे; परन्तु पर का वह कुछ नहीं कर सकता। एक
जागृत
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जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) जीवराशि हर्ष - शोक की मुख्यता से अजागृत रहती है और दूसरी जीवराशि राग-द्वेष की मुख्यता से अजागृत रहती है।
अब तीसरी उस जीवराशि की बात करते हैं, जो शुद्धज्ञान का ही अनुभव करती है। वह केवली भगवन्तों की एवं सिद्ध जीवों की राशि है।
यद्यपि चौथे गुणस्थान में धर्मी जीवों को आत्मा का भान है। 'मैं शुद्ध चिदानन्दस्वरूप हूँ, शरीरादि का करना मेरा कार्य नहीं है, राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं है।' ऐसा भान होने से वहाँ ज्ञान चेतना की शुरूआत हो जाती है, तथापि अभी वहाँ साधक को अस्थिरताजन्य राग-द्वेष होते हैं, इसकारण उसकी ज्ञानचेतना को गौण करके जिनको पूर्ण ज्ञानचेतना प्रगट हुई है ह्र उन केवली और सिद्धों को यहाँ लिया गया है। इसप्रकार केवल भगवान तथा सिद्ध भगवान अपने ज्ञान का अनुभव करते हैं। स्वर्ग-नर्क को जानते हैं तो भी उनको राग-द्वेष अथवा हर्ष शोक नहीं होता । इसप्रकार चेतना के तीन प्रकार कहे इसके अतिरिक्त कोई अन्य काम करना जीव की सामर्थ्य में नहीं है।
यह पंचास्तिकाय ग्रन्थ है। इसमें प्रत्येक अस्तिकाय की स्वतंत्रता का ज्ञान करने का प्रयोजन है। जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय से सर्वथा भिन्न स्वतंत्र है। यह ज्ञान करना है।
"हर्ष-शोक तथा राग-द्वेष चैतन्य की सत्ता में होते है, जड़ की सत्ता में या जड़ के कारण नहीं होते हैं। पर्याय में होनेवाले ये दोष जीव के हैं, परन्तु वे एक समय के हैं ह्र इसप्रकार का ज्ञान कराया है।
यहाँ पंचास्तिकाय में ज्ञानप्रधान कथन है। इस कथन के हेतु आत्मा को पर से पृथक् दर्शाकर यह कहा है कि ह्न राग-द्वेष जीव के शुद्ध द्रव्य में नहीं हैं। यहाँ कहा गया है कि एकेन्द्रिय जीव हर्ष - शोक का वेदन करता है और त्रस जीव राग-द्वेषरूप परिणाम करता है; परन्तु ये जीवों को अपने में