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पञ्चास्तिकाय परिशीलन आत्मा का अविनाशी स्वभाव है, संसार अवस्था में आत्मा की पर्याय अशुद्धतारूप में पलटती है और मोक्ष होने पर शुद्धता रूप से पलटती है, द्रव्य का नाश नहीं होता। जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, वैसे ही जीव द्रव्यरूप से कायम रहकर अशुद्ध अवस्था से मुक्त होता है और परमानन्दमय अनन्तकालतक ज्ञान-आनन्दरूप रहता है।"
बौद्धमत के अनुसार ह्न यदि मोक्ष में जीवद्रव्य का ही अभाव हो जाता है तो संसार में प्रतिसमय पर्याय का नाश होने पर भी जीव का नाश क्यों नहीं होता? अतः यह स्पष्ट है कि ह्र वहाँ मोक्ष में भी मात्र प्रतिसमय पर्याय ही बदलती है, द्रव्य तो त्रिकाल रहता है। यदि मोक्ष में जीव नित्य नहीं तो
नित्य पर्याय धर्म किसका ? मुक्तदशा में केवलज्ञान पर्याय भी अनित्य है ह्न इसप्रकार सिद्ध में भी द्रव्य अपेक्षा से अविनाशीपना और पर्याय अपेक्षा से विनाशीपना है।
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यहाँ भव्यभाव का आशय यह है कि परमानन्ददशा का नयी-नयी अवस्थारूप होना भव्यभाव है । केवलज्ञान, केवलदर्शन अनंतसुख, अनन्तवीर्य जो नयी-नयी अवस्था में होते हैं, यह भव्यभाव है। सिद्धदशा में आत्मा नहीं हो तो भव्यभाव नहीं हो सकता और भव्यभाव के अभाव में सिद्ध आत्मा नहीं हो सकते।
जो यह कहा जाता है कि अभव्यजीव मोक्ष के योग्य नहीं, उस जीव की बात यहाँ नहीं है, यहाँ तो शुद्धात्मा का भान करके, परमानन्ददशा प्रगट करने से विकार व मलिनता के न होने को अभव्य भाव कहा है।
यदि सिद्ध होनेवाले जीवों में आत्मा नहीं रहता तो भव्य अभव्य भाव किसमें रहेंगे ? मुक्ति किसकी होगी? इसलिये निश्चित है कि वहाँ आत्मा कायम रहता है और इस अपेक्षा उन सिद्धों को ये दोनों ह्र भव्यभाव और अभव्यभाव होते हैं।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद प्रासाद नं. १३२, पृष्ठ १०३८, दिनांक २-३-५२
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गाथा - ३८
पिछली गाथा में यह सिद्ध किया है कि मुक्ति में जीव का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता। वहाँ जीव का अस्तित्व सादि-अनन्त काल तक (सदैव ) रहता है। मुक्ति में जीव का सर्वथा अभाव माननेवालों की मान्यता यथार्थ नहीं है ।
अब इस गाथा में विविध चेतन भावों की चर्चा करते हैं।
मूलगाथा इसप्रकार है ह्र
कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को । चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण ||३८||
(हरिगीत)
कोई वेदे कर्म फल को, कोई वेदे करम को । कोई वेदे ज्ञान को निज त्रिविध चेतकभाव से ||३८||
एक जीव राशि विविध चेतक भावों द्वारा कर्मों के फल को वेदती
है। दूसरी प्रकार की जीव राशि कार्य (कर्म) को वेदती है तथा तीसरी प्रकार की जीवराशि ज्ञान को चेतती है, वेदती है।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि “यहाँ आत्मा के चेतयितृत्व गुण की व्याख्या है।
वे कहते हैं कि ह्न एक चेतयिता (स्थावर) तो ऐसे हैं जो अति प्रकृष्ट मोह से मलिन हैं और उनका प्रभाव अति प्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्म से ढक (मुंद) गया है, वे अपने उस मुद्रित चेतकस्वभाव द्वारा सुख-दुखरूप कर्मफल को ही प्रधानता से भोगते हैं, चेतते हैं; क्योंकि उनका अति प्रकृष्ट वीर्यान्तराय कर्म के उदय से कार्य करने का सामर्थ्य नष्ट हो गया है।
दूसरे प्रकार के चेतयिता (स) वे हैं, जो अतिप्रकृष्ट मोह से मलिन हैं और जिनका प्रभाव प्रकृष्ट ज्ञानावरण से मुंद गया है ह्न ऐसे चेतकस्वभाव द्वारा अल्प वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मिश्रितपने सुख-दुखरूप कर्मफल