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________________ १३२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन तैसैं छोटी-बड़ी देहधारी जीव करमतैं, ताहीकै प्रमान तामैं आपरूप धापै है । तातैं देहमान जीव निहचै सदैव कह्या, देहकै विलायै सिद्ध देहमाप आपै है ।। १८७ ।। (दोहा) लोक- असंख्य-प्रदेससम, निहचै जीव बखान । देहमात्र विवहारकरि, दोऊ नय परमान ।। १८८ ।। उक्त सवैया इकतीसा में कहते हैं कि जैसे पद्मरागमणी दूध में डालने पर अपने प्रकाश से समस्त दूध में व्याप्त हो जाता है। अग्नि का संयोग पाकर जब दूध उफन कर बढ़ता है तो पद्मरागमणि की प्रभा भी बढ़ जाती है तथा दूध का उफान कम होता है और दूध बैठ जाता है तो मणि की प्रभा भी घट जाती है, दोनों एक माप प्रमाण ही रहते हैं। उसीप्रकार देहधारी जीव भी छोटी-बड़ी देह के अनुसार ही अपना रूप धारण करते हैं। इसलिए ही देहधारी संसारी जीव को देह प्रमाण तथा देह के विलय होने पर सिद्ध जीव अन्तिम देहाकार होता हैं। निश्चय से जीव असंख्यात प्रदेशी लोक प्रमाण होता है और व्ययहार देह प्रमाण होते हैं। ये दोनों ही नय प्रमाण हैं, अपनी-अपनी अपेक्षा सही है। इसी गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजी स्वामी कहते हैं। कि ह्न “जिस तरह पद्मराग मणि दूध में डालने पर उसकी प्रभा दूध के जितने क्षेत्र में फैलती है, उसीप्रकार संसारी जीव देह प्रमाण फैलती है। यह जीव अनादिकाल से विकार से मलिन होता है और शरीर प्रमाण रहता है। यदि पर्याय की तरफ से देखें तो एक समय की पर्याय में मलिन हुई हैं तथा पर्याय के प्रवाहरूप से देखें तो अनादि से मलिन है। शरीर प्रमाण आत्मा का क्षेत्र है; परन्तु शरीर व आत्मा एकमेक नहीं है। (75) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा ३७ से ७३) १३३ शरीर तो आत्मा से भिन्न ही हैं। ज्ञानी जानता है कि शरीर भिन्न ही हैं। रोग मुझे हुआ नहीं है मैं तो रोगी ज्ञाता मात्र हूँ । आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों में रहकर शरीर प्रमाण संकोच - विस्तार स्वयं के कारण करता है। जो जीव वस्तु के ऐसे यथार्थ स्वतंत्र स्वरूप को नहीं जानता / मानता और तत्त्वज्ञान का विरोध करता है वह क्रम से निगोद दशा को प्राप्त होता है। तथा 'मैं पूर्ण ज्ञानानन्द हूँ', ऐसे आत्मा के भान सहित ज्ञानस्वभाव की उग्र आराधना करने वाले को केवलज्ञान एवं सिद्धदशा प्रगट होती है । वहाँ आत्मा के प्रदेश अन्तिम देह प्रमाण ही रहते हैं।" उपर्युक्त कथन से गुरुदेव श्री यह कहना चाहते हैं कि आत्मा स्वभाव से तो अपने अनन्तगुण-पर्यायों सहित विद्यमान रहता हुआ असंख्य प्रदेशी ही है; परन्तु संसार अवस्था में स्वदेह प्रमाण घटता-बढ़ता है। यदि लब्धिअपर्याप्तक सूक्ष्मनिगोद की पर्याय में जन्म लेता है तो आत्मा के प्रदेश उसी शरीर के आकार में संकुचित हो जाते हैं और महामत्स्य के की पर्याय में जाता है तो वे आत्मप्रदेश महामत्स्य के आकार में बदल जाते हैं। यहाँ तक ही नहीं, जब केवली समुद्घात करता है तो इस जीव के ही असंख्य प्रदेश तीनों लोक प्रमाण दण्डाकार, कपाट, प्रतर एवं लोकपूर्ण भी हो जाते हैं तथा सिद्धावस्था में अन्तिम देह प्रमाण सदाकाल रहता है। १" इसप्रकार इस गाथा का सारांश यह है कि निश्चय से आत्मा असंख्यात प्रदेशी लोक प्रमाण होता है तथा व्यवहारनय देह प्रमाण होता है। एतदर्थ उफनते दूध का उदाहरण देकर समझाया है कि दूध के अनुसार ही पद्मरागमणि की प्रभा घटती बढ़ती रहती है। १९. श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १२८, पृष्ठ १०१४, दिनांक २८-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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