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पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसीलिए जीवों को अनंत प्रमाण कहा है। उन जीवों में कुछ केवली समुद्घात की अपेक्षा समस्त लोक में व्याप्त होते हैं और कुछ लोक में अव्याप्त होते हैं।
आचार्य जयसेन कहते हैं कि ह्न अगुरुलघुक गुणांश अनन्त हैं, उन अनन्त गुणांशों द्वारा सभी जीव परिणमित हैं; वे प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात हैं। उनमें से कुछ तो कथंचित् सम्पूर्ण लोक को प्राप्त हैं और कुछ अप्राप्त हैं। अनेक जीव मिथ्यादर्शन, कषाय सहित संसारी हैं तथा अनेक जीव सिद्ध हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी पद्य में कहते हैं ह्र
(सवैया) अविभागी एक जीव ताकै परदेसपुंज,
सूखिम है अनूमान तेई अंत लसै है। अगुरुलघु-सरूप साधक सुभाव तामैं,
लागै बिना भेद ताकै हानिवृद्धि रस हैं।। लोक पूरनैकी समैं लोकव्यापी जीव कहा,
और समै देहमान जीवदेस कसै हैं। मिथ्या औकषाय-योग-संपत्ति अनादि जोगी,
संसारी विजोगी सिद्ध मोख माहिं बसै हैं ।।१८३।। एक जीवद्रव्य यद्यपि अविभागी है, तथापि उसके असंख्यात प्रदेश पुंज हैं। वे सभी सूक्ष्म हैं। उसमें अगुरुलघु नामक गुण या शक्ति है, जिससे अभेद रहते हुए भी षट्गुणहानि-वृद्धिरूप परिणमन होता है। यह जीव लोकपूरण समुद्घात के समय लोकव्यापी होता है, शेष समय में अपने-अपने देह प्रमाण रहता है। मिथ्यात्व, कषाय, योग के कारण जीव अनादि से संसारी है और इनसे रहित जीव मोक्षपद प्राप्त करते हैं।
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं ह्न “यहाँ जीवों के स्वाभाविक प्रदेशों की अपेक्षा संख्या तथा उनके मुक्त और संसारी भेद बतलाये हैं।
प्रत्येक जीव अपने अगुरुलघु गुण में षट्गुणहानिवृद्धिरूप
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा ३७ से ७३)
१२९ परिणमित हो रहा है। वह कभी अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता। आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। वे असंख्यात प्रदेश कभी कम-ज्यादा नहीं होते। आत्मा में अनन्तगुण हैं, वे भी कभी कम-ज्यादा नहीं होते।
अगुरुलघुगुण आत्मा की मर्यादा की सुरक्षा करता है। उसका अविभागी अंश अतिसूक्ष्म है। • एक सिद्ध के जितने गुण हैं उतने ही प्रत्येक जीव के गुण हैं। उनमें से एक भी गुण घटता/बढ़ता नहीं है। सिद्ध होने से गुण बढ़ते नहीं और निगोद होने से घटते नहीं।। आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, उनमें से एक प्रदेश भी घटता-बढ़ता नहीं है। जीव निगोद में जाए, चींटी हो अथवा हाथी हो या केवली समुद्घात करे; तथापि क्षेत्र में एक प्रदेश भी कम या ज्यादा नहीं होता। जीव की पर्याय साधकदशा रूप हो या बाधकदशारूप पर्याय हो; निगोद की हो या सिद्ध की हो; तीव्र अज्ञानतारूपपर्याय हो या ज्ञानदशारूप पर्याय हो; परन्तु वह पर्याय अपनी मर्यादा में रहती है, वह अन्य की पर्याय में नहीं जाती है।
यहाँ लवण समुद्र का उदाहरण देकर कहा है कि जिस तरह समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता; उसीप्रकार अनन्त आत्मायें अपने स्वक्षेत्र की, अपने ज्ञान-दर्शनादि भावों की तथा समय-समय होने वाली अपनी पर्यायों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, पर का काम नहीं करते।
इसप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा बँधी है। पर्याय अवस्था की मर्यादा एकसमय की और द्रव्य-गुण की मर्यादा त्रिकाल है। इसप्रकार दोनों की मर्यादा पूर्वक पूरा प्रमाणज्ञान होता है। अपने ज्ञान में पूरा आत्मद्रव्य ज्ञेयरूप से ख्याल में आ जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि अनंत गुण और उनकी प्रतिसमय की पर्यायें ह्न अपनी मर्यादा में रह रही हैं।
इसप्रकार गुरुदेवश्री ने वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन कर स्पष्टीकरण किया।
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१.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १२८, पृष्ठ १०१०, दिनांक २७-२-५२