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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
कवि हीराचन्दजी ने भी पद्य में यही कहा है ह्र
(दोहा)
दरब वस्तु का नास नहिं नहिं अदरब उत्पाद | गुण- परजै करि दरब कै, व्यय-उत्पाद विवाद ।। १०२ ।। नवीन पर्यायों की उत्पत्ति में सत् (द्रव्य) का नाश नहीं होता तथा असत् का उत्पाद नहीं होता। यदि असत् द्रव्य से पर्यायों की उत्पत्ति हो तो गधे के सींग जैसा असत् के उत्पाद का प्रसंग प्राप्त होगा। सवैया में अब यह कहते हैं कि ह्न असत् के उत्पाद से और सत् के विनाश से क्या दोष उत्पन्न होगा।
( सवैया इकतीसा ) जैसे घी उपजै तै गोरस बिना न उपजै,
दही के विनसै नाहिं गोरस विनासा है। एक परजाय होइ नासै परजाय एक,
गोरस सदैव सुद्ध भेद कै विकासा है ।। तैसें द्रव्य नासै नाहिं होइ द्रव्य नवा कछू,
पर्जयकै लोक माहिं नानाभेद भासा है । स्याद्वाद अंग सरवंग वस्तु साधि साधि,
सिवगामी जीवहूँ नै आतमा निकासा है ।। १०३ ।। (दोहा)
असत दरवकै उपजतैं, उपजै दरव अनंत । सत विनासतें दरव सब, जुगपत नास करत ।। १०४ ।। तातें परजैमैं सधै, उपज विनास अनेक ।
दरवरूप सासुत अचल, गुन परजय की टेक ।। १०५ ।। जैसे घी रूप पर्याय की उत्पत्ति गोरस रूप द्रव्य के बिना नहीं होती,
दही के नाश होने पर भी गोरस का नाश भी नहीं होता। एक वर्तमान पर्याय के उत्पन्न होने से पूर्व की एक पर्याय नष्ट होती है। गोरस का विनाश नहीं होता । उसीप्रकार पर्याय की उत्पत्ति में द्रव्य का नाश नहीं होता।
(42)
सत् का विनाश व असत् का उत्पाद नहीं होता ( गाथा १ से २६ )
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असत् द्रव्य के उत्पन्न होने से अनन्त द्रव्यों की उत्पत्ति होने का प्रसंग प्राप्त होगा तथा सत् द्रव्य के नाश से सब द्रव्यों के एक साथ नाश का प्रसंग प्राप्त होगा । इसलिए पर्याय में ही अनेक प्रकार से उत्पत्ति और विनाश होता है। वस्तु द्रव्य रूप से तो सदा शाश्वत रहती है।
इसी बात को गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने अपने व्याख्यान में कहा है ह्न “जो वस्तु है, उसका कभी नाश नहीं होता और जो वस्तु नहीं है; उसका कभी उत्पाद नहीं होता। इसकारण द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य का नाश तथा उत्पाद नहीं होता। जो भी जीव सिद्धपद को प्राप्त हुए है, उनका नाश नहीं होता हैं, मात्र उनकी पर्यायें पलटती हैं।
लकड़ी जलकर खाक हो जाने से परमाणुओं का नाश नहीं होता, मात्र परमाणुओं का रूपान्तरण होता है।
निश्चय से जगत में जो वस्तु नहीं है, वह नयी नहीं होती। गधे के सींग नहीं हैं तो नये उत्पन्न नहीं होते। खेत में जो नया धान्य पकता है, उस धान्य के भी जगत में परमाणु सूक्ष्मरूप में थे, वे ही स्थूलरूप से परिणमन करते है; परमाणु नये नहीं होते । "
सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ह्न जैसे दही के विनाश और घी के उत्पाद से गोरस का विनाश नहीं होता तथा घी गोरस से ही उत्पन्न होता है, अन्य द्रव्य से नहीं। एक पर्याय उत्पन्न होती है, एक पर्याय का नाश होता है, गोरसरूप द्रव्य दोनों में सदैव विद्यमान रहता है।
इस गाथा को समझने से हमारी यह श्रद्धा अत्यन्त दृढ़ हो जाती है। कि मेरा कभी नाश नहीं होता, मात्र पर्याय पलटती है। पर्याय का पलटना भी हमारे हित में ही है; क्योंकि इसके बिना जीव को वर्तमान आकुलतामय दुःख से मुक्त होकर निराकुल सुख की प्राप्ति संभव ही नहीं है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १०८, पृष्ठ ८९३, दिनांक १५-२-५२